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( १३० ) व्यभिचार का चौथा ओर धन का पाँचवाँ। ऐसी हालत में न्यर्थ का जेवर क्यों खोना ? ऐसा विचार करके उसने इस प्रकार के व्यवहार से स्टेशन वालों को प्रसन्न कर गाड़ी में बैठ गई, और जहाँ २ मौका आया इसी व्यवहार से पार होती गई। इस तरह दोनों पूज्यजी के सेवा में पहुंचीं। पहुँचने पर उस भाविका ने पूज्यजो से अर्ज की कि यह मेरी साथ वाली बाई मूर्ख है। इसने पाँचवाँ आश्रव भी सेवन कराया और जेवर भी गुमाया। परन्तु मैंने चतुर्थ आश्रव का ही सेवन किया और घन बचा लाई सो यहाँ पर खाऊँगी, खर्चुगी और प्रसंग पाकर दान भ भी उठाऊँगी।
क्या तेरह-पन्थी साधु, रुपया खर्चकर आने वाली श्राविका की अपेक्षा रुपया बचाकर आने वाली श्राविका को श्रेष्ठ मानेंगे? श्रेष्ठ न सही, बराबर तो मानेंगे ? उनकी दृष्टि में चौथा आश्रव और पाँचवा श्राश्रव समान ही हैं, फिर दोनों श्राविकाओं को समान मानने में क्या हानि है ? कदाचित् कहें कि जो व्यभिचारिणी है, वह श्राविका ही नहीं है, तो जिसने रुपया दिया वह भी श्राविका नहीं है। क्योंकि आप वेश्याओं के उदाहरण में स्पष्ट ही कहते हैं, कि "एक वेश्या ने जेवर देकर पाँचवें भाव का सेवन कराया,
और दूसरी ने व्यभिचार कगके चौथे श्राश्रव का सेवन कराया, इसलिए दोनों ही का पाप या धर्म बराबर होगा"। तब
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