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( १३८ ) भाकर पर-पुरुष-सेवन का त्याग कर लिया और सदाचारिणी बन गई। इतने ही में उस पुरुष की विवाहिता स्त्री ने सुना कि मेरे पति ने परदार-गमन का त्याग कर लिया है। यह सुनकर वह भी प्रसन्न होती हुई महात्मा के पास आई। उसने महात्मा से कहा, कि आपने मेरे पति को पर घी का त्याग करा दिया, यह आपने बड़ी कृपा की। मेरे पति व्यभिचारी हो गये थे, और बहुत कहने सुनने पर भी वे नहीं मानते थे; इसलिए मैं भी व्यभिचारिणी हो जाती, परन्तु आपकी कृपा से मेरे पति सुमार्ग पर पागये, अतः मैं भी पर-पुरुष गमन का त्याग करती हूँ।
इस प्रकार एक व्यभिचारी पुरुष को उपदेश देने से उस पुरुष को पनि भी व्यभिचार में प्रवृत होने से बच गई, तथा म्ममिचारिणी सी ने भी व्यभिचार त्याग दिया। यह क्या बुरा हुआ ?
मतलब यह कि जिस प्रकार चोर को उपदेश देने से, पोर और धन के स्वामी का हित हुश्रा, उसी प्रकार मारने वाले को पदेश देने से, मारने वाले का और बकरे का हित हुमा तथा उसी प्रकार व्यभिचारी को उपदेश देने से व्यभिचारी पुरुष,
• तेरह पन्धियों में इस तरह की अनुकूल भावना तो होती हो नहीं है। उनको भावना ऐसी कलुषित हो गई है, कि जिससे वे प्रतिकूल और पाप की ही कल्पना करते हैं।
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