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दान करना पाप नहीं है
यद्यपि दया और दान जैन धर्म के प्राण हैं। किसी भी मरते हुए जीव को बचाना और किसी नंगे भूखे या कष्ट पाते हुए का कष्ट मिटाना न तो पाप है, और न इन तेरह-पन्थियों के सिवा कोई पाप मानता ही है, इस लिए इनको सिद्ध करने हेतु कोई भी प्रयत्न करना सूर्य को दीपक बताने के प्रयत्न के समान व्यर्थ है । फिर भी तेरह-पन्थो साधु अपनी कुयुक्तियों से भोले लोगों के हृदय में यह उसाने का प्रयत्न करते हैं कि किसी मरते हुए जीव को बचाना, अथवा साधुओं के सिवा अन्य किसी को कुछ देना, पाप है। लेकिन उनका यह कथन शास्त्र के भी विरुद्ध है, और व्यवहार के भी विरुद्ध है।
साधु के सिवा अन्य लोगों को दान देना अथवा मित्र, सम्बन्धी, स्वधर्मी श्रादि को खिलाना-पिलाना पाप है, यह सिद्ध करने के लिए तेरह-पन्थी लोग आनन्द श्रावक का उदाहरण सामने इखाते हैं, कि देखो आनन्द श्रावक ने भगवान महावीर के सामने बाह प्रतिज्ञा की थी, कि मैं श्रमण व निग्रन्थ के सिवाय और
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