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अनाथाश्रम आदि संस्थाओं को दिया गया हो, अथवा अपने माता पिता को दिया गया हो ।
तेरह - पन्थी पुण्य तस्व का स्वतन्त्र उत्पादन मानते ही नहीं हैं, किन्तु यही मानते हैं कि पुण्य निर्जरा के साथ ही उत्पन्न होता है । लेकिन इस सम्बन्ध में यातो तेरह-पन्थी लोग भूलते हैं, अथवा वे दान को पाप बताने के लिए हो ऐसा जान-बूझ कर मानते हैं । यदि पुण्य का उत्पादन स्वतन्त्र रीति से न हो सकता होता, तो पुण्य को अलग तत्त्व ही क्यों बताया जाता ? खेत में अनाज के साथ उत्पन्न होने वाले घास का अलग वर्णन कोई नहीं करता । दूसरे, यदि निर्जरा के साथ पुण्य उत्पन्न होता है, वो पाप किसके साथ उत्पन्न होगा ९ जैसे पुण्य और पाप भिन्न गुण वाले साथी हैं, दोनों आश्रव-तत्त्व की पर्याय हैं, उसी तरह संवर और निर्जरा भी भिन्न गुण वाले साथी हैं और ने 'मोक्ष तत्व का पर्याय रूप हैं। इसलिए जब पुण्य की उत्पत्ति निर्जरा के साथ ही मानी जाती है, तो पाप की उत्पत्ति किसके साथ मानी जावेगी ? फिर बेचारा पाप अकेला और स्वतन्त्र क्यों उत्पन्न होगा !
तीसरी दलील और लीजिये ! निर्जरा दो तरह की होती है, अकाम और सकाम । श्रकाम निर्जरा तो बन्ध का ही कारण मानी जाती है, वह निर्जरा ऐसी नहीं है जो नये कर्म का बन्धन
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