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( ८२ ) होता है, ऐसा कोई विवरण नहीं है। टीकाकार ने यह बताया है कि-"पात्रायामदानाद्य तीर्थकरं नामादि पुण्य-प्रकृतिबंध स्तदन्न पुण्यं एवं सर्वत्र"-इसका भाव यह है कि पात्र को गन्नादि देने से तीर्थकर नामादि पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है और उनके सिवाय दूसरों को देने से दूसरी पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है, क्योंकि पुण्य-प्रकृतिएँ ४२ प्रकार की हैं सो उत्कृष्ट पात्र को देने से तीर्थंकर नाम जैसी उत्कृष्ट पुण्य-प्रकृति का बन्ध है और शेष, जैसे पात्र वैसी सामान्य विशेष पुण्य-प्रकृति जानना। परन्तु तेरह-पन्थी लोग साधु के सिवाय पुण्य-प्रकृति का निषेध करने के लिए कहते हैं कि
"अनेरा ने दीघा अनेरो प्रकृति नो बन्ध कह्यो छे ते अनेरी प्रकृति तो पाप नी छे”
('भ्रम-विध्वंसन' पृष्ठ ७६) और भी कहते हैं किअव्रत में दान दे जेहनो टालन रो करे उपायजी। जाने कर्म बंधे छे म्हायरे म्हांने भोगवतां दुखदायजी ॥ अव्रत में दान देवा तणूं कोई त्याग करे मन शुद्धजी । तिणरो पाप निरन्तर टालियो तिणरी वीर बखाणी बुद्धजी।
('सद्धर्म मण्डन' पृष्ठ १०१) अर्थात्-व्रती (जो साधु नहीं है) को दान देने से मुझे कर्म का बन्ध होगा, जिनको भोगना महा दुःखदायी होगा, ऐसा
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