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श्रेष्ठतम सीमा बताई गई है, भावक उस सीमा का पालन पूर्णतया कर रहा है, परन्तु साधु के लिए जो अन्तिम और श्रेष्ठतम सीमा बताई गई है, साधु उससे बहुत ही दूर है, पिछड़ा हुआ है । ऐसा होते हुए भी साधु सुत्रती तथा सुपात्र और श्रावक अव्रती तथा कुपात्र कैसे रह सकता है ? श्रावक भी सुव्रती तथा सुपात्र है । फिर भी तेरह - पन्थी साधु श्रावक के विषय में और श्रावकत्व की चरम सीमा पर पहुँचे हुए ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक के लिए भी कहते हैं कि श्रावक को खिलाना पाप है, श्रावक की सेवा करना पाप है, ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक को भिक्षा देना पाप है और श्रावक की कुशल-क्षेम पूछना भी पाप है ।
हम पूछते हैं कि जब सुनती होने पर भी श्रावक को खिलाना या ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक को भिक्षा देना पाप है, तो साधु को देना धर्म कैसे हो जावेगा ? यदि तेरह - पन्थी कहें कि श्रावक में अभी भत्रत शेष हैं, तो उनका यह कहना झूठ है । श्रावक के लिए जितने व्रत बताये गये हैं, वे सब व्रत स्वीकार कर लेने पर अम्रत कहाँ रहा ? यदि कहा जावे कि व्रत लेने के बाद जो वो जो बाकी रहा है का व्रत नहीं है | श्रावक भावक उन सब को स्वीकार मर्यादा जितनी कही गई है,
उसे भी
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वह श्रव्रत है,
व्रत है, श्रावक व्रत कहे गये हैं,
कर चुका है। श्रावक के व्रतों की
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बाकी रह गया है, त्यागना साधु का फ्रे तो जितने भी