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( ६५ ) हैं, आश्रव से बिल्कुल मुक्त हो चुके हैं, उनकी अपेक्षा सयोगी केवली कुपात्र हैं। इस प्रकार कुपात्रता की परम्परा का अन्त तो सिद्ध या अयोगी होने पर हो हो सकता है।
जिस श्रावक ने १२३४५ में से दस हजार का ऋण चुका दिया है, फिर भी यदि वह कुपात्र कहा जाता है, तो जिन्होंने २३४५ में से दो ही हजार का ऋण चुकाया है, वे सुपात्र क्यों कहे जावेंगे ? जिन श्रावकों ने साधुओं की अपेक्षा अपने ऋण के पाँच भाग चुका दिये हैं, उनको वे साधु, कुपात्र किस मुंह से कह सकते हैं, कि जिनको केवलियों को अपेक्षा ६८ गुना ऋण चुकाना बाकी है। अपनी फूटी आँख को न देखकर दूसरे की आँख की छींट को देखने और उसे काना कहने वाले शर्मदार होते हैं या बे-शर्म! यदि शर्मदार होते, तब तो ऐसा नहीं कह सकते।
श्रावक ने जो व्रत लिये हैं, उसके कारण वह व्रताव्रती ही कहा जावेगा, अव्रती नहीं, चाहे वह ब्रत सामान्य हो या अधिक हो। परन्तु जब से उसने ब्रत लिया, तब से अबत की क्रिया उसको नहीं लग सकती। यह बात तो तेरह-पन्थियों को भी मान्य होनी चाहिए। मान्य क्यों न होगी, जब कि वे स्वयं 'भ्रमविश्वंसन' मिथ्यात्वी क्रियाधिकार के पाँचवें बोल पृष्ठ १२-१३ में कहते हैं
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