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( ५७ ) जाता। व्यवहार और कोष आदि में भी 'पात्र' और 'अपात्र' ये दो ही शब्द पाये जाते हैं। यानी पात्र है और पात्र नहीं है । कदाचित् किसी में दोनों ही पा रही हुई हों तो विशेष परिस्थिति के लिए एक तीसरा शब्द 'पात्रापात्र' और भी बन सकता है, परन्तु यह शब्द पात्र और अपात्र इन दोनों शब्द के मिश्रण से ही बना है, इनसे भिन्न नहीं है। हाँ, आचार्यों ने कहीं सुपात्र के तीन भेद किये हैं। यथा-जघन्य सुपात्र सम्यक् दृष्टि, मध्यम सुपात्र श्रावक, उत्कृष्ट सुपात्र साधु और अपात्र रोगी, दुखी, मंगत, भिखारी तथा कुपात्र हिंसक, चोर, जार, वेश्या ऐसी कहीं कहीं व्याख्या है। साधु-श्रावक को तो गुण-रत्नों का पात्र हो कहा है।
ऐसी दशा में अपने लिए सुपात्र और दूसरे के लिए कुपात्र शब्द लाये कहाँ से ? केवल अपनी बड़ाई और दूसरों की तुच्छता बताने के लिए ही कुपात्र और सुपात्र शब्द की सृष्टि की है, या अपना स्वार्थ साधने के लिए तथा इन नामों से लोगों को धोखे में डालने के लिए ही इन शब्दों की कल्पना की गई है, या और किसी उद्देश्य से ? साधु कहलाकर भी इस तरह के कल्पित शब्दों द्वारा लोगों को धोखे में डालना क्या उचित है ? परन्तु तेरह-पन्थी साधनों ने यदि औचित्य को अपने में रहने दिया होता, तो जैन शास्त्र और भगवान महावीर के नाम से वे क्या तथा दान को पाप ही क्यों कहते ?
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