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( ४१ ) का ऋण चुकता हो, तो फिर संयम का पालन और पण्डितमरण व्यर्थ हो जावेंगे। फिर संयम लेने या पण्डित मरण से मरने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी और धर्म ध्यान तथा शुक्लध्यान भी निरर्थक सिद्ध होंगे।
श्रावक धर्म को जानने वाला है जिसके लिए सूत्र में बहुत ही विशेषण आये हैं। वह जानता है कि आर्त ध्यान और रोद्र ध्यान करने से कर्म का बन्ध होता है। इसलिए किसी भी समय आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान न आने देना चाहिए, चाहे कितने भी कष्ट क्यों न हों, अथवा कोई मार ही क्यों न डाले ? इस बात को जानते हुए भी ऐसे कितने श्रावक निकलेंगे, जो जान से मारे जाने या बहुत दिनों तक भूखे प्यासे रहने, अथवा चिरकालीन रोग प्रस्त रहने की बात तो दूर रही, किसी के द्वारा एक थप्पड़ मार दिये जाने एर अथवा गाली दी जाने पर, अथवा समय पर भोजन-पानी न मिलने से या थोड़ा सिर या पेट दुखने से प्रार्त, रौद्र भ्यान या क्रोधादि न करते हों। जब सम्यक्त्व धारी देशविरती श्रावकों को भी थोड़े ही से कष्ट में आ रौद्र ध्यान व क्रोधादि कषाय हो सकते हैं, तो जो लोग धर्म को बिल्कुल ही नहीं जानते, उन्हें उस समय कैसा भीषण आत रौद्र ध्यान होता होगा, जब कि वे किसी के द्वारा जान से मारे जाने लगते होंगे अथवा अन्न पानी न मिलने क्षुषा तृषा का कष्ट पाते होंगे
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