Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधक
हरिगीतिका छंद। मिथ्यात दलन सिद्धांतसाधक, मुकति मारग जानिये । करनी अकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप वखानिये । संसार सागर तरन तारन, गुरु जहाज विशेखिये ! जगमांहि गुरुसम कह वनारसि, और कोउ न देखिये ।
मिथ्या ज्ञानको दलनेवाले और सिद्धांत वा मुक्तिमार्गको साधनेवाले सुगति दुर्गति करनी अकरनी तथा पुण्य पापको वर्णन करनेवाले संसार सागर तरने और तारनेवाले गुरु एक प्रकारके जहाज हैं। इस कारण जगतमें गुरुको समान अन्य कोई हितु नहीं है।
__ मत्तगयंद मातु पिता सुत बंधु सखी जन, मीत हितू सुख कामन पोके । सेवक साज मतंगज वाज, महादल राज रथी रथनीक । दुर्गति जाय दुखी विललाय, परै सिर आय अकेलहि जीके। पंथ कुपंथ गुरू समझावत, और सगे सव स्वारथ होके ॥३॥
माता, पिता, पुत्र, भ्राता, सखीजन, हितैपी मित्र, सुखदायक स्त्री, तथा सजे हुये सेवक, हाथी, घोड़े, रथ, रथचढ़े राजा वा सेनापति ये सव अपने २ मतलवके हैं, जब कि यह जीव दुर्गतिमें जाकर दुखी होकर विलविलाता है तो अकेला ही दुःख भोगता है कोई काम नहीं पाते, गुरु ही एक ऐसे हैं, जोपापमार्ग व मोक्षमार्ग समझाकर कुगतिले बचाते हैं । ३.॥