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तीसरा अध्याय : अपराध और दण्ड
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कूट-कपट में कुशल तथा द्यूत, मद्य और मांस भक्षण में वह आसक्त रहता था। वह राजगृह के प्रवेशमार्ग, निर्गमन-मार्ग, गोपुर, द्यूतगृह, पानागार, वेश्यालय, चौराहे, देवकुल, प्याऊ, हाट-बाजा और शून्यगृह आदि स्थानों में चक्कर लगाता रहता । राज्योपद्रव होने पर, अथवा किसी उत्सव या पर्व आदि के अवसर पर प्रमत्त दशा में, लोगों के छिद्रान्वेषण करता हुआ, नगर के उद्यान, पुष्करिणी, बावड़ी आदि सार्वजनिक स्थानों में भ्रमण करता हुआ, वह सदा लूट-खसोट की ताक ने रहा करता ।
राजगृह नगर में धन्य नाम का एक सार्थवाह रहता था । उसके देवदत्त नामक शिशु को एक दासचेट खिलाया करता था। एक दिन विजय ने सर्वालंकार- विभूषित देवदत्त को उद्यान में खेलते देख उसे उठा लिया, और अपने उत्तरीय वस्त्र से उसे ढँक, नगर के पिछले द्वार से निकल भागा।' जीर्णोद्यान के किसी भग्न कूप के पास पहुँचकर उसने शिशु को मार डाला और उसके आभूषण उतार लिए। फिर वह मालुकाकक्ष में छिपकर रहने लगा ।
उधर दासचेट ने शिशु को वहाँ न देख चीखना- चिल्लाना शुरू किया । बहुत तलाश करने पर भी जब शिशु कहीं नहीं मिला तो वह खाली हाथ घर लौटा । घर पहुँचकर वह अपने मालिक के पैरों में गिर पड़ा और रोते-बिलखते उसने सब हाल सुनाया । पुत्र हरण का समाचार सुनकर धन्य सार्थवाह शोक से अभिभूत हो पृथ्वी पर पछाड़ खाकर गिर पड़ा । होश आने पर उसने इधर-उधर पुत्र की खोज की जब कहीं पता न लगा तो वह बहुत-सी भेंट लेकर नगर-रक्षकों के पास पहुँचा और उनसे पुत्र के पता लगाने का अनुरोध किया ।
नगर-रक्षक कवच धारण कर, अपनी बाहुओं में चमड़े की पट्टियाँ बाँध और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो, धन्य को साथ लेकर, चोर को हूँ ढ़ते-ढाँढ़ते जीर्णोद्यान के भग्न कूप के पास पहुँचे । इस कूप में से बालक की लाश निकालकर उन्होंने धन्य के सुपुर्द कर दी। इसके बाद
१. मृच्छकटिक ( ४.६ ) में धाइयों के गोद में खेलते हुए बच्चों के चुराये जाने का उल्लेख है ।
२. अंगुत्तरनिकाय १, ३, पृ० १४१ में नदी - पर्वत आदि विषम स्थानों में रहने वाले, वृक्ष-महावन आदि में छिप कर रहने वाले तथा राजा - महामात्य आदि बलवान् पुरुषों के श्राश्रय में रहने वाले चोरों का उल्लेख है ।