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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड को भी काम में लिया जाता था।' उर्ध्ववात, अर्श, शूल आदि रोगों से ग्रस्त होने पर साध्वी को निर्लोम चर्म में रखने का तथा पागल कुत्ते से काटे जाने पर उसे व्याघ्र के चर्म में सुलाने का विधान है। उन दिनों सों का बहुत जोर था, इसलिए यदि सप काट लेता तो उसको चिकित्सा कराना आवश्यक था। यदि सांप काट लेता, विसूचिका ( हैजा ) हो जाती, या साधु ज्वर से ग्रस्त हो जाता तो उसे साध्वी के मूत्रपान करने का विधान है। किसी राजा को महाविपधारी सर्ष ने डंस लिया, लेकिन रानी का मूत्रपान करने से वह स्वस्थ हो गया। सर्पदंश पंर मन्त्र पढ़कर कटक ( अष्टधातु के बने हुए वाले ) बांध देते, या मुंह में मिट्टी भरकर सर्प के डंक को चूस लेते, या उसके चारों ओर मिट्टी का लेप कर देते, या फिर रोगो को मिट्टी खिलाते जिससे कि खाली पेट में विष का असर न हो। कभी सर्प से दष्ट स्थान को आग से दाग देते, या उस स्थान को काट देते, या रोगो को रात-भर जगाये रखते । इसके सिवाय, बमी को मिट्टी, लवण और परिषेक ( सेचन ) आदि को भी सर्पदंश में उपयोगो बताया है। सुवर्ण को विषघातक माना गया है। सप से दष्ट पुरुष को सुवर्ण घिसकर उसका पानी पिलाते । ऐसो हालत में साधुओं को सुवर्ण की आवश्यकता होती, और उसे वे श्रावकों से मांग कर, या दीक्षा लेने के पूर्व स्थापित निधि से निकालकर या योनिप्राभूत की
१. ओघनियुक्ति ३६८, पृ० १३४-अ ।
२. बृहत्कल्पभाष्य ३.३८१५-१७ । चर्म के उपयोग के लिये देखिये सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान, ७.१४ पृ० ४२ ।
३. वृश्चिक, मंडुक, उरग और नर ये चार प्रकार के जाति-आशीविर बताये गये हैं, स्थानांग ४.३४१, पृ० २५० । छह प्रकार के विष परिणाम के लिए देखिए, वही, ६, पृ० ३५५-अ ।
४. बृहत्कल्पसूत्र ५.३७; भाष्य ५.५९८७-८८ ।
५. निशीथभाष्यपीठिका १७० । बौद्धों के महावग्ग ६.२.९, पृ० २२४ में सर्पदंश पर गोबर, मूत्र, राख और मिट्टी के उपयोग का विधान है।
६. निशीथभाष्यपीठिका २३० ।
७. वही ३९४; ओघनियुक्ति ३४१ पृ० १२९-अ, ३६६, पृ० १३४-अ; पिंडनियुक्ति ४८ ।