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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज
[ पांचवां खण्ड
( करने योग्य ) को अकल्प्य और अकल्प्य को कल्प्य कहा गया है; " हाँ, बिना प्रयोजन अकरणोय कृत्य न करना चाहिए । यदि अपवाद का कोई कारण उपस्थित हो, तो अकरणीय का निषेध नहीं है, क्योंकि तीर्थकरों ने 'सत्य को ही संयम' कहा है ।
अपवाद मार्ग का अवलम्बन
जैन श्रमण संघ के शैशवकाल में कितने ही अवसर ऐसे आते थे जबकि निर्मन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को दुष्ट राजाओं, मंत्रियों और पुरोहितों की ओर से जान-बूझकर कष्ट पहुँचाया जाता था । ऐसी हालत में कहा गया है कि यदि उपद्रवकारी शांतिपूर्ण उपायों से ठोक रास्ते पर नहीं आता तो श्रमण संघ का कर्तव्य है कि उसके उचित दण्ड की व्यवस्था की जाये । त्रिविक्रम रूप से प्रख्यात श्रमण संघ के उद्धारक मुनि विष्णुकुमार का उल्लेख किया जा चुका है । विष्णुकुमार की भांति जो लोग प्रवचन की रक्षा में सतत संलग्न रहते हैं, न उन्हें केवल शुद्ध और पुण्यात्मा कहा गया है, बल्कि उन्हें शीघ्र ही मोक्षप्राप्ति का अधिकारी बताया गया है। ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया जा चुका है जब कि उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर जैन श्रमणां को अपवाद मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा है। कोंकण की भयानक अटवी का एक प्रसंग छेदसूत्रों में आता है । साधुओं का कोई संघ अटवी में से गुजर रहा था । अटवी को भयानक जंगली जानवरों से आक्रान्त जान, सब साधु सन्ध्या के समय एक स्थान पर ठहर 1 रात होने पर उसमें से एक सहस्रयोधी साधु लकुट लेकर पहरा देने लगा । इतने में एक शेर दिखायी दिया। साधु ने अपनी लकुट से उसे मार भगाया। दूसरी और तीसरी बार भी उसने ऐसा ही किया । प्रातः काल होने पर जब संघ ने विहार किया तो पता चला कि रास्ते
१. निशीथ चूर्णी १५.४८६६ की चूर्णी ।
२. णिक्कारणे अकनणिज्जंण किंचि अगुण्णायं, अववायकारणे उप अकप्पणिज्जंण किंचि पडिसिद्धं णिच्छ्यववहारतो एस तित्थकराणा, "कज्जे सच्चेण भवियव्वं” कज्जं ति अववादकारणं, तेण जति अकप्पं पडि सेवति तहावि सच्चो भवति, सच्चो त्ति संजमो, वही, १६.५२४८ की चूर्णी । तथा देखिए जीतकल्पचूर्णी पृ० ५५; भंगवती आराधना ( गाथा ६२५ ) भी प्रायश्चित्त से असंयम सेवन का नाश बताया है ।
३. व्यवहारभाष्य ७.५४५ - ४७ १.९० आदि, पृ० ७६ आदि ।