________________
जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [पांचवां खण्ड लेने वालों को वनीपक कहा है। वनोपकों ( याचकों ) के पांच भेद हैं-श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान । ___ पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख पहले किया जा चुका है। ब्राह्मणों ( माहण) को लोकानुग्रहकारी बताते हुए कहा है कि वे लोग स्वर्ग में देवता के रूप में रहते थे, प्रजापति ने उन्हें इस पृथ्वी पर भूदेव के रूप में सिरजा | जातिमात्र से सम्पन्न इन ब्रह्मबन्धुओं को दान देने से बहुत फल बताया गया है, और यदि ये यज्ञ, याग, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह नामक पटकर्मों से सम्पन्न हों तो फिर क्या पूछना। दारिद्रय से पीड़ित, रोगी, दुर्बल, बंधुविहीन, लूले, लंगड़े तथा सिर, आँख और दांत आदि की वेदना से पीड़ित जनों को कृपण कहा है। रास्ता चलते-चलते जो थक गये हों, अथवा जिनके आगमन की कोई तिथि निश्चित न हों, उन्हें अतिथि कहा है। गाय आदि जानवरों को घास आदि का मिलना सुलभ है, लेकिन दण्ड आदि से ताड़ित श्वानों के लिए यह भी नहीं। श्वान कैलाश पर्वत पर देव-भवनों में रहने वाले देव हैं, जो मर्त्यलोक में यक्षों के रूप में आकर निवास करते हैं । जो उनको पूजा करना है वे उसका हित करते हैं, और जो पूजा नहीं करता, उसका हित नहीं करते। ___ औपपातिकसूत्र में अनेक प्रव्रजित श्रमणों के नाम आते हैंगोअम" (इनके पास एक छोटा-सा बैल रहता है, जिसके गले में कौड़ी और माला आदि बंधी रहती हैं। लोगों के पांव पड़ने में यह शिक्षित रहता है। इस बैल को लेकर ये साधु भिक्षा-वृत्ति करते हैं), गोव्वइअ (गोबतिक = गाय की भांति व्रत रखने वाले। जब गायें गांव से बाहर जाती हैं तो ये भी साथ चल देते हैं, और जब वे चरती हैं, पानी पीती हैं, वापिस लौटतो हैं और सोतो हैं, तब ये भी
१. स्थानांगसूत्र ५.४५४, पृ. ३२४-अ टीका। .. २. निशीथभाष्य १३.४४१६; स्थानांग, वही; दशवैकालिकचूर्णी, पृ० १९६ । यहां पिंडोलग का भी वनीपकों में उल्लेख है। ३. लोकाणुग्गहकारीसु भूमिदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि णाम बंभबंधुसु, किं पुण छकम्मणिरएसु ।
-निशीथभाष्य १३.४४२३ । ४. वही १३.४४२४-२७ ।
५. गौतम परिव्राजक का उल्लेख आचारांगचूर्णी २, २, पृ० ३४६ में आता है।
.