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च० खण्ड] छठा अध्याय : रीति-रिवाज . ३४७ विज्जा' आदि अनेक विद्याओं के उल्लेख हैं। गर्दभी विद्या उज्जैनी के राजा गर्दभिल्ल को सिद्ध थी। जब यह गर्दभी शब्द करती तो जिसके कानों में उसका शब्द पड़ जाता, वह रुधिर वमन करता हुआ भय से विह्वल होकर गिर पड़ता।
उच्छिष्ट विद्यायें विद्याओं में कुछ विद्याओं को उच्छिष्ट भी कहा गया है । गौरी, गांधारी" आदि विद्याएँ मातंगविद्या मानी गयी हैं।६ सूत्रकृतांग में दामिलो (द्राविडी ), सोवागी (श्वपाकी अथवा मातंगी), और सोवरी (शंबरी) विद्याओं का उल्लेख है। प्रत्यनीक सार्थवाह के द्वारा जैन साधुओं को बहिष्कृत किये जाने का उल्लेख किया जा चुका है। ऐसी दशा में कहा है कि यदि कोई साधु शौच गया हुआ हो और शौच शुद्धि के लिए उसे प्राशुक जल न मिल सके तो उच्छिष्ट विद्या का जाप करके, मूत्र आदि द्वारा शौच-शुद्धि की जा सकती है। इसी प्रकार उत्कट शूल होने पर अथवा सर्पदंश होने पर प्राशुक जल आदि के अभाव में उच्छिष्ट मन्त्र या विद्या जपकर मूत्र (मोय-मोक) के आचमन द्वारा रोगी को अच्छा करने का विधान है। सर्प का विष उतारने के लिये किनारीदार वस्त्र का उपयोग किया जाता था ।
विद्याधर प्राचीन जैन साहित्य में विद्याधरों का स्थान महत्वपूर्ण बताया गया है। विद्याघरों को खेचर (आकाशगामी) भी कहा है; वे अपनी
१. उत्तराध्ययनसूत्र २०.४५ । २. तथा देखिए वसुदेवहिंडी, पृ० ७, १६४ । ३. निशीथचूर्णी १०. २८६० की चूर्णी । ४. दिव्यावदान ३३, ६३६ इत्यादि में उल्लिखित ।
५. इसका उल्लेख दीघनिकाय १, केवट्टसुत्त, पृ० १८४ तथा दिव्यावदान में मिलता है। इस विद्या की सहायता से मनुष्य अदृश्य हो सकता था।
६. बृहत्कल्पभाष्य १. २५०८ । ७. भरतेश्वरबाहुबलिबृत्ति १, पृ० १३२-अ में उल्लेख है। ८. सूत्रकृतांग २, २. १३, पृ० ३१७-अ । ९. बृहत्कल्पभाष्य ५. ५९८२-८३ । --- १०. वही ३. ३९०७ ।। ११. विद्याधरों का उल्लेख भरहुत के शिलालेखों ( २०९) में मिलता है।