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जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [ पांचवां खण्ड आहार लाकर वे साधुओं का पेट भरते थे। दर्भिक्ष के समय एषणाशुद्धि नहीं रह सकती थी और असमाधि से मरण हो जाता था | यह । जानकर एकबार किसी आचार्य ने अपने गच्छ के समस्त साधुआ को अन्यत्र विहार कर जाने का आदेश दिया। सब साधु तो चले गये, केवल एक क्षुल्लक आचार्य के स्नेह के कारण, जाकर भी वापिस लौट आया। तत्पश्चात् यह सोचकर कि आचार्य को क्यों कष्ट दिया जाय, वह स्वयं भिक्षा के लिए जाने लगा। भिक्षावृत्ति करते समय किसी प्रोषितभर्तृका ने उसे उसके साथ ही रहकर भोग भोगने के लिए निमंत्रित किया । क्षुल्लक ने सोचा कि यदि इसकी बात न मानूँगा तो असमाधि के कारण प्राणों से वंचित होना पड़ेगा, अतएव वे दोनों पति-पत्नी के रूप में रहने लगे।
ब्रह्मचर्यजन्य कठिनाइयाँ जैनसूत्रों में जगह-जगह साधुओं को उपदेश दिया है कि स्त्रियों के सम्पर्क से सदा बचना चाहिए। जैसे लाख को अग्नि में डालने से वह फौरन ही जल उठती है, उसी प्रकार साधु स्त्रियों के संवास से नष्ट हो जाता है। स्त्री को विषले कंटक को उपमारे दी गयी है, तथा साधुओं को लँगड़ी, लूलो अथवा बूची और नकटो स्त्री से भी दूर ही रहने का आदेश है।' स्त्रियों का उपसर्ग अथवा शीतस्पर्श न सह सकने, के कारण प्राणों तक का त्याग कर देने का विधान है।"
लेकिन अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन आसान काम नहीं था। भिक्षावृत्ति करते समय साधुओं को स्त्रीजनों के सम्पर्क में आना पड़ता था । वे उनसे भिक्षा ग्रहण करते और उन्हे सद्धर्म का उपदेश देते । यदि कोई साधु एकल-विहारी होता तो उसे स्त्रियों के चंगुल में पड़ने के अधिक अवसर आने की संभावना रहती। कितनी ही बार साधुओं को गृहस्थों के साथ रहना पड़ता, और ऐसी दशा में गृहस्थ की पत्नी, कन्या, पतोहू , दाई अथवा दासी उनके पास पहुँचकर बलिष्ठ संतान
१. बृहत्कल्पभाष्य ४.४९५६-५८ । २. सूत्रकृतांग ४.१.२७ । ३. वही ४.१.११ । ४. दशवैकालिकसूत्र ८.५६ । ५. आचारांग १.२१२, पृ० २५२ ।