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३४२ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [च० खण्ड गच्छ को निकाल देता, या उनका भक्त-पान बन्द कर देता तो आभिचारुका' विद्या पढ़कर उसे लौटाया जाता। इसी प्रकार वसति में रहते हुए यदि जल, अग्नि अथवा आंधी का उपद्रव होता तो स्तंभनी विद्या का प्रयोग किया जाता । यदि सर्प आदि कोई विषैला जन्तु वसति में घुस जाता तो अपद्रावण ( उद्दवण) विद्या द्वारा उसे अन्यत्र पहुंचाया जाता । स्तंभनी और मोहनी विद्याओं द्वारा चोरों का स्तंभन
और मोहन किया जाता। आभोगिनी विद्या जपने पर दूसरे के मन की बात का पता लग जाता, तथा प्रश्न, देवता और निमित्त द्वारा चोरों का पता लगाया जाता।
प्रवचन को हास्यास्पद होने की स्थिति से बचाने के लिए भी अनेक बार मंत्र और विद्या का प्रयोग करना पड़ता। एक बार, किसी राजा ने जैन श्रमणों को ब्राह्मणों के पादवंदन करने का आदेश दिया । इस पर संघ की आज्ञा से, एक मंत्रबिद् साधु ने कनेर की लता को अभिमंत्रित कर ब्राह्मणों के ऊपर छोड़ा जिससे उनके शिरच्छेद होने लगे। यह देखकर राजा भयभीत हो उठा और वह श्रमणसंघ के पैरों में गिर पड़ा। किसी पुरोहित ने प्रासाद के ऊपर बैठ अपने पांव लटकाकर किसी जैन साधु का अपमान करना चाहा, किन्तु विद्या के प्रयोग द्वारा इसका बदला लिया गया। कितनी ही बार धनाजन आदि के लिए भी जैन श्रमणों को मंत्र आदि का आश्रय देना पड़ता था।'
जैन श्रमणों की ऋद्धियां जैन श्रमणों को ऋद्धि-सिद्धियों के उल्लेख जैनसूत्रों में मिलते हैं। कोष्ठबुद्धि का धारक श्रमण एक बार सूत्र का अर्थ जान लेने पर उसे
१. अभिचारकं णाम वसीकरणं उच्चारणं वा रगणो वसीकरणं मंतेण होम कायन्वं, निशीथचूर्णीपीठिका ४९० ।
२. बृहत्कल्पभाष्य ५.५९८२ । ३. वही, १.२७४४ । ४. वही, ३.४८०९। ५. वही, ३.४६३३ । ६. निशीथचूर्णीपीठिका ४८७ चूर्णी । ७. उत्तराध्ययनचूर्णी, पृ० २,८२ ।
८. धातुवाद से अर्थोपार्जन करने और महाकाल मंत्र से निधि के दर्शन कराने का उल्लेख आता है, निशीथचूर्णी ४.१५७७ की चूर्णी ।