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च० खण्ड ] पांचवाँ अध्याय : कला और विज्ञान ३२७ नाटक देखे जाने का भी उल्लेख किया गया है । पिंडनियुक्ति में राष्ट्रपाल नाटक का उल्लेख है जो आषाढभूति नामक जैन श्रमण के द्वारा पाटलिपुत्र में खेला गया था। इसमें चक्रवर्ती भरत के जीवन के अभिनय का प्रदर्शन था जिसे देखकर अनेक राजा और राजकुमारों ने संसार का त्याग कर श्रमण-दीक्षा स्वीकार की थी । बाद में यह नाटक इसलिए नष्ट कर दिया गया कि कहीं यह पृथ्वी क्षत्रियों से खाली न हो जाये। नट लोग स्त्री का वेष धारण कर नृत्य करते थे । रास (रासषेक्षण) का उल्लेख आता है।
(६)चित्रकला प्राचीन भारत में चित्रकला का पर्याप्त विकास हुआ था। चित्रकार चित्रों के बनाने में अपनी कुंची (तुलिया) और विविध रंगों का उपयोग करते थे । सर्वप्रथम वे भूमि को तैयार करते और फिर उसे सजाते । मिथिला के मल्लदत्त कुमार ने हाव, भाव, विलास और शृंगार चेष्टाओं से युक्त एक चित्रसभा बनवायी थी। उसने चित्रकार श्रेणो को बुलाया और वह चित्रसभा बनाने में संलग्न हो गयी। इनमें एक चित्रकार बड़ा विलक्षण था था जो द्विपद, चतुष्पद और अपद (वृक्ष आदि ) के एक हिस्से को देखकर उसके सम्पूर्ण रूप को चित्रित कर देता था। आलेखन विद्या में निपुण किसो नटपुत्र का उल्लेख आता है जिसने शिप्रा नदी के किनारे गली-मुहल्लों सहित उज्जैनी नगरी को चित्रित कर दिखाया था।
१. वही १८, पृ० २४०-अ। २. ४७४-८०। ३. उत्तराध्ययनटीका १८, पृ० २५० । ४. वही १८, पृ० २५१ ।
५. कुट्टिनीमत ( १२४, २३६ ) में चित्र का उल्लेख है; इसकी गणना वेश्याओं द्वारा सीखने योग्य कलाओं में की गयी है। कामसूत्र में चित्रकला के निम्नलिखित छह आवश्यक गुण बताये गये हैं :-दृश्य आकृतियों का ज्ञान, यथार्थ दृश्य दर्शन, रूपों का परिमाण और उनका गठन, रूपों पर मनोभावों का प्रभाव, लालित्य का निवेशन, कलात्मक प्रतिरूपण तथा कूची और रंगों के उपयोजन में सादृश्य और कलात्मक विधि । तथा ए० के० कुमारस्वामी, मैडिवल सिंहलीज़ आर्ट, पृ० १६४ आदि ।
६. ज्ञातृधर्मकथा ८, पृ० १०६ आदि; उत्तराध्ययन ३५.४ । .. ७. आवश्यकचूर्णी पृ० ५४४ ।