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च० खण्ड] तीसरा अध्याय : स्त्रियों की स्थिति
बहुपतित्व प्रथा के उदाहरण मी खोजने से मिल जाते हैं । पंचभर्तारी पांचाली द्रौपदी का उल्लेख किया जा चुका है।' आवश्यकचूर्णा में दो भाइयों को एक ही पत्नी का उल्लेख मिलता है । जौनसारबावर जाति में अभी भी यह प्रथा पायी जाती है।'
विधुर-विवाह यदि किसी कारणवश कोई पुरुष अपनी स्त्री को भूल जाये, उसे घर से निकाल बाहर करे या कोई कारण उपस्थित होने पर वह स्वयं चली जाये तो ऐसी अवस्था में पुरुष को दूसरा विवाह करने की अनुमति प्राप्त थी। किसी सार्थवाह की पत्नी अपने शरीर को सजाने में इतनी व्यस्त रहती कि वह अपने घर-बार की ओर जरा भी ध्यान न देती थी। परिणाम यह हुआ कि एक के बाद एक घर के सब नौकर घर छोड़कर चले गये । जब स्त्री का पति प्रवास से लौटा तो उसने घर का यह हाल देख स्त्री को घर से निकाल दिया और दूसरा विवाह कर लिया।
विधवा-विवाह - हिन्दू विवाह के आदर्श के अनुसार, पतिव्रता उसी को माना जाता था जो अपने पति की मौजूदगी में और उसकी मृत्यु के बाद भी अपने सतीत्व का पालन कर सके। अतएव साधारणतया प्राचीन भारत में विधवा-विवाह को मान्य नहीं किया गया है। यद्यपि स्मृतिकारों के मत में निम्नलिखित पांच अवस्थाओं में विधवा-विवाह को जायज बताया गया है-यदि पूर्व पति का पता न लगता हो, उसकी मृत्यु हो गयी हो, वह साधु हो गया हो, वह नपुंसक हो, या फिर उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया गया हो;" फिर भी कुल मिलाकर विधवाविवाह को तिरस्कार की दृष्टि से ही देखा जाता था ।
१. तथा देखिए अल्तेकर, वही, पृ० १३२-३४ । पांचालवासी कामशास्त्र के अध्ययन में निष्णात माने गये हैं, चकलदार, स्टडीज़ इन वात्स्यायनन्स कामसूत्र, पृ० ६।
२. पृ० ५४९ । ३. सेन्सस इण्डिया, १९३१, जिल्द १, भाग १, पृ० २५२ । ४. उत्तराध्ययनटीका ४, पृ० ९७ । ५. नारदस्मृति, १२.९७ ।।
६. देखिए वालवल्कर, वही, विवाह सम्बन्धी अध्याय; अल्तेकर, वही, पृ० १८१-८३ ।