________________
तृ० खण्ड ] तीसरा अध्याय : विनिमय
१८६ नाम से चिह्नित दीनारों को गाड़कर रक्खा था ।' बृहत्कल्पभाष्य में द्वीप (सौराष्ट्र के दक्षिण में एक योजन समुद्र द्वारा चलने पर स्थित) के दो साभरक को उत्तरापथ के एक रूप्यक के बराबर, उत्तरापथ के दो रूप्यक को पाटलिपुत्र के एक रूप्यक के बराबर, दक्षिणापथ के दो रूप्यक को कांचीपुरी के एक नेलक के बरावर, तथा कांचीपुरी के दो नेलक को कुसुमपुर (पाटलिपुत्र ) के एक नेलक के बराबर कहा गया है।
_क्रय-शक्ति __उन दिनों रुपये की क्रयशक्ति, अथवा सामान्य वस्तुओं की कीमत के सम्बन्ध में हमें विशेष जानकारी नहीं मिलती । इधर-उधर जो इक्केदुक्के उल्लेख मिलते हैं, इसी से हमें इस विषय का थोड़ा-बहत ज्ञान होता है। उदाहरण के लिए, तीतर एक कार्षापण में मिल जाता था; मालूम होता है कि यहां तांबे के कार्षापण से ही तात्पर्य है । किसी दरिद्र व्यक्ति ने धीरे-धीरे करके एक हजार कार्षापण इकट्ठे कर लिए । तत्पश्चात् किसी सार्थ के साथ उसने अपने घर के लिए प्रस्थान किया । उसने एक रुपये की बहुत-सी काकिणो भुनाई और प्रतिदिन एक-एक काकिणी खर्च करने लगा। गाय का मूल्य ५०० सिक्के तथा कम्बलों का मूल्य १८ रूप्यक से लगाकर १ लाख रूप्यक तक था। कोई अहीरनी दो रुपये लेकर किसी वाणिक को दुकान पर कपास
१. निशीथभाष्य १३.४३१५ । सिक्कों पर मोरछाप का प्रारम्भ कुमारगुप्त से होता है। उसके बाद स्कन्दगुप्त और भानुगप्त के सिक्कों में भी मोर . का चलन रहा ।
२. कपदं मार्गयित्वा तस्य दीयते । ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवह्रियते यथा दक्षिणापथे काकिणी। रूपमयं वा नाणकं भवति यथा भिल्लमाले द्रम्मः । पीतं नाम सुवर्ण तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा पूर्वदेशे दीनारः। 'केवडिको' नाम यथा तत्र व पूर्वदेशे केतराभिधानो नाणकविशेषः, बृहत्कल्पभाष्य १.१६६६, ३.३८९१ श्रादि, और बृत्ति । तथा निशीथभाष्य १०.३०७० और चूर्णी; १.६५८-५६ ।
३. दशवैकालिकचूर्णी पृ० ५८ । ४. उत्तराध्ययनसूत्र ७.११ टीका ।.. -....... ५. श्रावश्यकचूर्णी पृ० ११७ । ६. बृहत्कल्पभाष्य ३.३८६० ।