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१३८ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [तृ० खण्ड मारते और उनका मांस विक्रय कर अपनी आजीविका चलाते । शिकार के लिए शिकारी कुत्तों को काम में लिया जाता ।' कुत्ते 'छो
छो' करने पर जंगली जानवरों के पीछे उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ते। शिकारी कुत्तों की सहायता से शिकार करनेवालों को सोणिय (शौनिक)
और जाल लगाकर शिकार पकड़नेवालों को वागुरिक कहा जाता था। पाश और कूट जालों को शिकार पकड़ने के काम में लिया जाता। तृण, मुंज, काष्ठ, चर्म, बेंत, सूत और रस्सी के पाश बनाये जाते ।" गड़रियों (छागलिय ) के बाड़ों में अनेक बकरे, मेंढे, बैल, सूअर, हरिण, महिष आदि बँधे रहते। अनेक नौकर-चाकर उनकी देखभाल करते। वे उनके मांस को तलते और भूनते तथा राजमार्ग पर जाकर बेचते ।६ लोग हाथियों का भी शिकार करते थे। हस्तितापस धनुष-बाण से हाथी का शिकार कर उसका मांस महीनों तक भक्षण करते थे।
चिड़ियों का शिकार करनेवाले चिड़ीमार कहे जाते। पक्षियों में भारंड, जीवंजीव, समुद्रवायस (जलकाक) ढंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, राजहंस, बक, क्रौंच, सारस, मयूर, वंजुलग, तित्तर (तीतर ), बतक, लावग, कपोत, कपिंजल, चिडग (चिड्डा ), शुक (तोता), मोर, कोकिल सेही आदि पक्षियों का उल्लेख है। राजहंस की चिह्वा को अम्ल बताया गया है जिससे दूध फट जाता था। शिकारी धनुष-बाण से तीतर, बतक, बटेर, कबूतर और कपिंजल आदि पक्षियों का शिकार करते । पक्षियों को पकड़ने के लिए बाज़ (विदंशक), जाल तथा वज्रलेप (लेप्य ) आदि का उपयोग किया
१. सूत्रकृतांग २, २.३१ । २. बृहत्कल्पभाष्य १.१५८५; निशीथचूर्णीभाष्य ४.१६३३ । ३. बृहत्कल्पभाष्य १.२७६६; व्यवहारभाष्य ३, पृ० २०-श्र। ४. उत्तराध्ययनसूत्र १६.६३; ५.५ । ५. निशीथसूत्र १२.१ । ६. विपाकसूत्र ४, पृ० २६,३० । ७. सूत्रकृतांग २, ६,६.२ । ८. प्रज्ञापनासूत्र १.५७; राजप्रश्नीयसूत्र ३, पृ० १५; निशीथसूत्र ६.२२ । ६. श्रावश्यकचूर्णी, पृ० १२३ । १०. सूत्रकृतांग २, २.३१ श्रादि ।