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हमारा जीवन संसार के इस भवसागर के दलदल में ही पूर्ण हो जाता है, लेकिन जब चेतना इस पीड़ा को देखती है तो परमज्ञान का मार्ग ढूँढती है। तब कोई भगवत् चेतना संसार के स्वरूप को भी देखती है और आंतरिक स्वरूप को भी और तब इन दो स्वरूपों के प्रति उसे स्पष्टतः भेद-रेखा दिखाई दे जाती है। उस भव्य चेतना को पता चलता है कि यह भेद सुगति का मार्ग न जानने के कारण है। तब वह कहता है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण ही मैं मूढ़मति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा। महावीर जैसे महापुरुष कहते हैं अपने पूर्वजन्म की यात्राओं को देखने और आत्मा के अनन्त भवों को देखने के बाद मैंने अन्तर्यात्रा करके ही जीवन के रहस्य और सत्य का अनुभव किया। ____ पुस्तकों से लिया गया ज्ञान उधार का होता है, चर्चाओं से मिली जानकारी अधूरी होती है, लेकिन स्वानुभूति ही सत्य होती है। तब ही पता चलता है कि वह कौन-सी कला है जिससे हम वंचित रह गए। तुम संसार की बहुत-सी कलाओं में पारगंत हो सकते हो, लेकिन फिर भी एक कला से अनजाने रह गए। वह कला है सुगति का मार्ग। जैसे मसालेदार सब्जी में नमक न डाला जाए तो वह बेस्वाद हो जाती है, वैसे ही जीवन सुगति के मार्ग के बिना व्यर्थ है। उस परम ज्ञान के निकट पहुँची आत्मा कहती है कि मुझ मूढ़मति ने सुगति का मार्ग नहीं जाना। मूढ़मति कौन ? जो अज्ञान से घिरा है, जिसे बोध नहीं है और जो आत्म-तत्त्व का अवलोकन नहीं कर पाता।
प्रायः ऐसा होता है कि जो मनोनुकूल होता है उसे हम तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं और जो प्रतिकूल होता है उस पर चिंतन-मनन किये बिना ही नकार देते हैं। परिणामतः जो मन के अनुकूल होता है वह चाहे मिथ्या हो, मनुष्य तब भी उसे स्वीकार कर लेता है और प्रतिकूल होने पर चाहे वह सम्यक् हो, तब भी उसे अस्वीकार कर देता है। आज सभी के पास ज्ञान का अकूत भंडार है उसे कुछ भी बताना शेष नहीं है, लेकिन फिर भी वह सुखी नहीं है। वास्तव में यह ज्ञान मात्र भंडारण के लिए है, आचरण के लिए नहीं। तभी तो भगवान ने जाना कि इतना ज्ञान होने के बाद भी वे मूढ़मति ही रह गए, क्योंकि सुगति का मार्ग नहीं जाना। ज्ञान का भंडार ही उन्हें अज्ञानी बना गया, क्योंकि जब वास्तविक ज्ञान का अवतरण हुआ तो उन्होंने जाना कि
काटें, मिथ्यात्व की कारा
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