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परमात्म-साक्षात्कार की पहल
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वन में जिसने स्वयं के चिराग को जला लिया, उसे बाह्य प्रकाश की
"आवश्यकता नहीं पड़ती। एक दीपक जिसमें लौ सतत जगमगा रही है उसे किसी अन्य रोशनी से देखने की जरूरत नहीं होती। उसका प्रकाश ही उसके होने का संकेत है। ठीक ऐसे ही आत्मा भी स्व-प्रकाशमान है, उसे अन्य बाह्य प्रकाश की जरूरत नहीं होती। लेकिन जब जगमगाते दीपक को किसी पात्र से ढक दिया जाता है तो समष्टि में फैलने वाला प्रकाश एक छोटे-से पात्र में सिमटकर रह जाता है।
व्यक्ति की चेतना प्रकाशमय है, लेकिन वह बाहर प्रकाश की तलाश में भटक रहा है। उसकी चेतना सत्यमय है, फिर भी वह सत्य की तलाश में घूमता रहता है। उसकी आत्मा परमात्मामय है फिर भी किसी परमात्मा को बाहर ढूँढ़ रहा है। तुम परमात्मा की तलाश में तीर्थ करते हो। मंदिर जाते हो, बाहर जिसे खोज रहे हो वह तो तुम्हारे अंतर्घट में सदा से है। काश, तुम थोड़ा ठहरते और भीतर स्वयं के अंदर उतर पाते। तुम्हारी हालत है
'कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढ़े वन माहिं' बिल्कुल इसी तरह तुम न जाने कहाँ-कहाँ खोज रहे हो। जैसे दूध में मक्खन निहित है, फूल में सुवास छिपी है, वैसे ही मनुष्य के अन्तर्-प्राणों
धर्म, आखिर क्या है?
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