Book Title: Dharm Aakhir Kya Hai
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ है। विचारों ही विचारों में तुम न जाने कहाँ-कहाँ पहुँच जाते हो। मन तुम्हें सपने बुनना सिखाता है। लेकिन जैसे ही यह बोध हो जाए कि मन ने तुम्हें जाल में उलझा रखा है, तुम मन के प्रति जाग्रत हो जाते हो। जाग्रत होते ही मन गिरने लगता है। मन से बल नहीं मिलता। वह तुम्हारा भ्रम होता है कि जो तुम पाते हो कि मन ने दिया। यह शरीर तो मिट्टी से बना है, इससे तो पार होना ही है। यह मन तो शरीर और वाणी का कोषागार है इससे भी मुक्त होना है। जब मन से मुक्ति होगी तब अंतर के आकाश की सीमा शुरू होगी और जब आकाश से भी आगे निकल जाएँ-वहीं परमात्मा है। भगवान कहते हैं, 'बहिरात्मपन को छोड़कर अंतरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।' मर्म समझ लें, साधना के पथ पर आगे बढ़ने में सहयोगी होगा। यह सूत्र अपने आप में साधना का सम्पूर्ण पथ लिए हुए है। बहिरात्म-भाव से उपरत होना साधना का पहला चरण है। अन्तरात्मा में निमज्जित होना दूसरा चरण है और परमात्मा के ध्यान में, उसकी सम्यक् स्मृति में लीन होना साधना का तीसरा और अन्तिम सोपान है। आप सब इस मार्ग पर चलें, चलने में सक्षम हों, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ! 146 धर्म, आखिर क्या है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162