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चातुर्मास में इधर-उधर के कामों में ही समय निकल जाता है। आज उसकी
ओर से प्रभावना, आज अमुक की ओर से स्वामीवत्सल हो रहा है। मुनि इन्हीं उलझनों में उलझे हैं। हाँ, हम आगे अवश्य बढ़े हैं लेकिन मूल कहीं पीछे ही छूट गया है। हम धर्म के मूल तक जाएँ। आत्मलीन होकर तपस्या करें। आने-जाने वालों में लीन होने की बजाय खुद में हों लीन। जो चूक हो रही है, उन्हें सुधारो। देह नहीं, कषाय-निर्जरा पर ध्यान दो।
एक युवक किसी सद्गुरु के पास पहुँचा और कहने लगा कि मैं साधु बनना चाहता हूँ, आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। गुरु ने उससे कहा पहले थोड़ी तपस्या करो, अपने आपको तपाओ, फिर मेरे पास आना। युवक जंगल में चला गया। करीब छह माह बाद वह लौटा तो उसका शरीर क्लांत हो चुका था, उसकी दाढ़ी बढ़ चुकी थी। उसने आग्रह किया कि अब तो शिष्य बना लीजिए। गुरु ने कहा, अभी तुम्हें तपना होगा। युवक फिर जंगल की ओर चला गया।
वह एक वर्ष बाद फिर लौटा, मगर गुरु ने उसे शिष्य बनने के योग्य नहीं पाया। युवक कुछ नहीं बोला, मगर आँखें तरेरते हुए पुनः जंगल की ओर लौट गया। वह करीब दो वर्ष बाद लौटा। उसका शरीर पूरी तरह सूख चुका था। हड्डी-हड्डी नजर आने लगी थी। उसने गुरु से पूछा-“अब क्या कहते हो?" गुरु ने उसे देखा और मुस्कुराकर कहा, “अभी तपना शेष है।" उस व्यक्ति को गुस्सा आ गया। उसने अपने एक हाथ की अँगुली मरोड़कर तोड़ी
और गुरु के हाथ में रख दी। वह बोला-अब भी आप मानते हैं कि कुछ तपाना शेष है। ____ गुरु कुछ देर खामोश रहे, फिर बोले–“भाई, मैंने तुमसे तपाने को कहा था, तुमने शरीर को तपा लिया मगर मन को नहीं तपा सके। मन तो अब भी वैसा है। भीतर गुस्से की चिनगारियाँ भरी पड़ी हैं। जब तुम मेरे पास पहली बार आए थे तब भी ये चिनगारियाँ जीवित थीं और आज भी मैं इन्हें जीवित देख रहा हूँ। मैंने शरीर को नहीं मन को तपाने की बात कही थी। मैंने मक्खन तपाने को कहा था, मगर तुम भगोना मात्र तपाते चले गए। जरा सोचो, क्या तुमने इतने वर्ष इसलिए शरीर को तपाया था कि अँगुली तोड़ कर मेरे हाथ में दे सको?” काश युवक इतनी आसानी से ही मन के उद्वेगों को
तप का ध्येय पहचानें
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