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का और आठवाँ तल स्वयं की चेतना का । अपने शरीर में प्रवेश करके जब व्यक्ति इन तलों को पार करता है, तब उसे आत्म-ज्ञान की उपलब्धि होती है । यही आत्म - ध्यान है, यही भीतर की सुवास, सुगन्ध और सौन्दर्य है । जिसे इसकी झलक मिल गई वह बाहर नहीं जाएगा, वह तो आत्म - रमण करेगा । भगवान कहते हैं 'अप्पा अप्पम्म रओ ।' फिर उस साधक की आत्मा स्वयं में रमण करती है।
कहते हैं कि जब महावीर कहीं पास से निकल जाते थे, तो अनुपम सुगन्ध का वातावरण छोड़ जाते थे । उनकी देह से दिव्य गन्ध फैलती थी । कहाँ से आती थी? महावीर तो स्नान भी नहीं करते थे, वे तो सदैव ध्यान - मुद्रा में आत्म-लीन रहते थे। उनके शरीर में झरती सुवास उनकी साधना का अतिशय था। जिसे भीतर की सुवास मिल गई वह तो जहाँ विचरण करेगा, सुगन्ध ही बिखेरेगा। भीतर की शान्ति, भीतर का आनन्द, भीतर का पुलक भाव और भीतर की चैतन्य ज्योति जिसे प्राप्त हो गई, वह किसी और लोक का प्राण हो जाता है । साधक संसार में भी संसार से उपरत ही रहता है ।
हिमालय की कन्दराओं में रहने वाले ऋषि-मुनियों के लिए ही ध्यान नहीं है, अपितु बाजार, दुकान, मकान, व्यवसाय और परिवार में रहने वालों के लिए भी है। अगर वह ध्यान का टॉनिक रोज ले लेता है तो दिन सार्थक और सफल हो जाता है। ध्यान वह दवा है जो सुबह ले ली जाए तो दिन शान्तिपूर्वक, तनाव व चिन्तामुक्त व्यतीत होता है और शाम को ध्यान कर लिया जाए तो रात निर्विघ्न पूर्ण होती है और भोर सुहानी हो जाती है। ध्यान की छोटी-सी विधि हमारे सुबह और शाम को आसान बना देती है । शरीर की व्याधियों को मिटाने के लिए मेडिसिन है और मन की व्याधियों को हटाने के लिए मेडिटेशन है। दवाएँ हमारी नाड़ियों को सुषुप्त कर देती है और ध्यान व्यक्ति को सुषुप्ति में से निकालकर जाग्रत बनाता है, हमारी संवेदनशीलता को बढ़ाता है। जो व्यक्ति प्रतिदिन ध्यान करता है वह जीवन को बहुत त्वरा से जीता है। सुबह ध्यान करने का अर्थ है स्वयं के आँगन में एक बुहारी लगा लेना । जैसे महिलाएँ सुबह - सुबह घर में झाडू लगाकर घर को स्वच्छ बनाती हैं, वैसे ही ध्यान की बुहारी चित्त की, संस्कारों की, भीतर की मलिनता को हटाकर स्वस्थता प्रदान करती है । दुनिया की तमाम दवाएँ निष्फल हो सकती हैं, पर ध्यान की औषधि अत्यन्त प्रभावी है।
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धर्म, आखिर क्या है ?
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