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महावीर कहते हैं, विषय-लोलुपता मनुष्य की नील लेश्या है। कुछ-न-कुछ हम माँग ही रहे हैं। हम बिना माँगे रहते ही नहीं और सहायता करते हैं तो पूरी उद्घोषणा के साथ । लेकिन भगवान कहते हैं धर्म करो तो अहंकार के लिये नहीं; दया करो तो दूसरे को पता नहीं चलना चाहिए। दान दो तो अहंकार का पोषण न हो। तुम देखते हो अगर किसी निर्माण कार्य के लिए तुमसे घर जाकर एक लाख रुपये माँगे जाएँ तो तुम हजार में ही टरका देते हो, लेकिन समाज के बीच जहाँ पच्चीस-पचास लोग इकट्ठे हों, तुम बढ़-चढ़कर बोलियाँ लगाते हो। क्यों? इससे तुम्हारा अहंकार पुष्ट होता है।
कुछ समय पहले मैं माउण्ट आबू में था । वहाँ मैंने देखा कि स्थान विशेष पर कुछ भिखारी बैठे रहते थे और आश्चर्य की बात कि वे केवल नवविवाहित युगल से ही भीख माँगते थे। मैंने एक दिन एक भिखारी को बुलाया और पूछा कि यहाँ से इतने लोग निकलते हैं, वृद्ध वृद्धाएँ ये तो अधिक धर्मात्मा होते हैं, तुम उनसे भीख नहीं माँगते, नये जोड़ों की तलाश ही करते रहते हो। भिखारी ने कहा कि यह पति के अहंकार की बात है । नई-नई पत्नी साथ में होती है उसके सामने चवन्नी देकर हीन नहीं होना चाहता, बस दिखावे के लिए झट से पाँच का नोट निकाल देता है ।
भिखारी भी जानता है, कौन देगा, कौन नहीं देगा। देखो, कहीं तुम्हारे भीतर मंदता तो नहीं है । परमात्मा के द्वारा दी गई समस्त चैतन्य - शक्तियाँ असाधारण हैं, लेकिन मनुष्य अपनी शक्ति को, अपनी चैतन्य - ऊर्जा को पहचान नहीं पाता और मंद बुद्धि बना रहता है । काला पर्दा तो हट गया लेकिन नीला परदा आ गया । अहंकार मंदता का लक्षण है ।
बादशाह अकबर ने राजसभा में एक रेखा, लकीर खींची और अपने सभासदों से कहा इसे बिना छुए छोटी कर दो । मंदता में रहे सभासद कोई बुद्धि न जगा पाए। इतने में बीरबल खड़ा हुआ, सभी सभासद हँसने लगे कि बिना छुए कैसे छोटी करेगा । बीरबल आगे बढ़ा, उस रेखा के नीचे एक बड़ी रेखा खींच दी और कहा कि देखो बिना छुए ऊपर की रेखा छोटी हो गई ।
मंदता से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति ही अपनी आंतरिक ज्ञानशक्ति को पहचान पाता है। आत्म- जागरण के लिए की जाने वाली आत्म-साधना ही लेश्याओं का क्रमिक विकास करती है । इसलिए बुद्धिहीनता त्यागें । कुछ
श्याओं के पार धर्म का जगत
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