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महावीर ने मनुष्य के चिंतन के आधार पर लेश्या - विज्ञान निर्मित किया । मनुष्य के जैसे मानसिक विकल्प होते हैं, जैसी सोच होती है वैसी ही लेश्या बनती है। इन छः राहगीरों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमशः छः लेश्याओं के उदाहरण हैं। लेश्याएँ छः प्रकार की हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । ये छह लेश्याएँ वास्तव में चेतना पर चढ़े छ: बहुरंगी परदे हैं ।
पहला परदा है कृष्ण लेश्या का । जैसा कि पहला राहगीर सोच रहा है कि वृक्ष को जड़ से ही उखाड़ लूँ । यह स्वभाव की क्रूरता है, व्यवहार में रौद्रता है, अंतर्मन में हिंसक वृत्ति है । ऐसा व्यक्ति अपने हित के लिए सामने वाले को समूल नष्ट करने को तैयार हो जाता है । कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महज हिंसा से भरा होता है ।
दूसरा राहगीर सोचता है कि 'स्कंध काटा जाए' – यह नील लेश्या वाला व्यक्ति है। काले से कुछ हल्का, नील वर्ण में आ गया। पूरे वृक्ष को क्यों नष्ट करें। स्कंध काटने पर वृक्ष पुनः अंकुरित हो जाएगा, कृष्ण के बाद नील । अन्धेरा अब भी है। फिर तीसरा सोचता है, शाखा ही काट ली जाए - यह कापोत लेश्या का व्यक्ति है । नील से कुछ उज्ज्वल, लेकिन अभी इसे भी वृक्ष की आत्मा का ख्याल नहीं है ।
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महावीर ने मनुष्य के मन की जिन सूक्ष्म तरंगों को पढ़ा, वह लेश्या के माध्यम से प्रगट हुआ। लेश्या महावीर की विचार पद्धति का विशिष्ट शब्द है लेश्या का अर्थ होता है - व्यक्ति के मन, वचन और काया की कषाय वृत्तियाँ । कभी ये कषाय शुभ मार्ग पर चलती हैं, कभी अशुभ की ओर उन्मुख हो जाती हैं। आत्मा इनसे घिरी रहती है । आत्मा के आसपास जब लेश्याओं का आवरण छा जाता है, तो मनुष्य की मौलिक चेतना छिप जाती है, आत्मा परदों से घिर जाती है और परदे का रंग जितना गहरा होता है, अंधकार भी उतना ही सघन होता है । जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे औरों की आत्मा का तो क्या, अपनी आत्मा का भी पता नहीं चलता।
मनुष्य की वैचारिक चेतना ही लेश्या बनती है । ये लेश्याओं के परदे आत्मा को ढक देते हैं । जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने लगती है। ऐसा समझें- जैसे आप स्टेज पर बैठे हैं और छः पर्दे टांग दिए गए हैं। पहला पर्दा काला है, आप गहरा अँधेरा पाते हैं । काला पर्दा
धर्म, आखिर क्या है ?
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