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हटाया गया, दूसरा नीला पर्दा है, अंधकार कुछ कम हुआ । नीले के पीछे से कापोत/स्लेटी रंग का पर्दा आया, अंधकार थोड़ा और कम हुआ। इसके पीछे से पीत वर्ण पर्दा निकला, अंधकार में और कमी आई। इसके बाद आया गुलाबी और फिर आया श्वेतवर्णीय । अर्थात् क्रमशः उजाला बढ़ता गया और अंधकार छँटता गया। अन्तिम लेश्या है शुक्ल लेश्या। अर्थात् श्वेतवर्णीय परदा। जब यह भी गिर गया, तो मात्र चेतना का सहज शुद्ध / निर्मल रूप रह गया। अर्थात् लेश्यारहित/निष्कलुष ।
आप जानते हैं, महावीर निर्वस्त्र रहे। वे तो राजघराने से आए थे कपड़ों की कोई कमी न थी, वस्त्र मुक्ति में बाधक भी नहीं होते और न ही जीवन-संस्कार में वस्त्र बाधा उत्पन्न करते हैं । फिर क्या हुआ जो वे निर्वस्त्र थे । कुछ गहन कारण रहा होगा कि वे निर्वस्त्र रहे ! कारण है - ' जैसे मैं तन को निर्वस्त्र कर चुका हूँ, वैसे ही आत्मा को भी निरावरण करना है।
शुभ्र
शरीर का आवरण वस्त्र है और आत्मा का आवरण लेश्याएँ। इसलिए महावीर की साधना रंग-बैरंग से मुक्ति है | भगवान कहते हैं कि लेश्या भी पर्दा है। जब तक रंग है तब तक पर्दा है । जैसे - जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है व्यक्ति श्वेत की ओर बढ़ता है । दृष्टि की गहराई बढ़ती है । तेजो लेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है । वह राहगीर जो सोच रहा है कि शाखा ही काटी जाए, तेजोलेश्या से घिरा व्यक्ति है । उसे वृक्ष का कुछ विचार है। उसे खयाल है कि क्यों वृक्ष को नष्ट किया जाए जब शाखा से ही काम चल सकता है । हमारे छोटे-छोटे कृत्यों में हमारी लेश्या प्रगट होती है ।
हमारे यहाँ योग-सूत्र में पतंजलि ने सात चक्रों की बात की है। महावीर का लेश्या-विज्ञान और योग के चक्र समानांतर अर्थ रखते हैं । व्यक्ति की चेतना जब मूलाधार से जुड़ी होती है, वह कृष्ण लेश्या में जीता है । मूलाधार में जीने वाला व्यक्ति अंधकार में जीता है । और तीन चक्रों के पार हृदय चक्र में जब ऊर्जा पहुँचती है तब वह तेजोलेश्या का रूप धारण कर लेती है । क्योंकि हृदय मनुष्य की शुचिता का परिचायक है । जब छठवें चक्र में आज्ञाचक्र में शक्ति पहुँचती है, वह शुक्ल लेश्या में पहुँचा हुआ व्यक्ति है। आज्ञाचक्र में पहुँचा हुआ व्यक्ति महावीर की परिभाषा में शुक्ल लेश्या में पहुँचता है। पतंजलि इसे सहस्रार कहते हैं । महावीर ने इसे शब्द दिया - वीतराग । रंग-राग
लेश्याओं के पार धर्म का जगत
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