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विश्व के इतिहास में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सभी ने ध्यान के द्वारा ही शुद्धि और मुक्ति पाई है। अगर साधना-मार्ग से ध्यान को निकाल दिया जाए तो शेष मार्ग प्राणवंत न रह पाएँगे। एक मुक्ति वह है जो मृत्यु से मिलती है और दूसरी मुक्ति वह है जो ध्यान के द्वारा जीते जी प्राप्त की जा सकती है। मृत्यु से प्राप्त हुई मुक्ति को किसने देखा-भोगा है, शायद उसका अभी सौभाग्य न हो। लेकिन ध्यान से प्राप्त मुक्ति जीवन को ताजगी से भर देती है। हर पल आनन्द, हर पल मुक्ति, हर पल चैतन्य-धारा भीतर सतत प्रवाहित होती है। जिसने ध्यान का मार्ग पा लिया, उसने सब कुछ पा लिया। यह राजमार्ग है अन्तस में उतरने का, चलने का। ध्यान वह जीवित धर्म है जो तत्काल प्रभाव देता है। यह बात कुछ जंचती नहीं कि सामायिक आज करो
और शान्ति अगले जन्म में मिले, पूजा आज करो और परमात्मा अगले जन्म में आएँ। उस गोली को कौन खाएगा जो ली तो आज जाए और बुखार उतरे अगले वर्ष।
सामायिक तो ऐसी हो कि सुबह सामायिक की तो दिन भर समता अपने-आप उतर आए। ध्यान की आब-ओ-हवा से भरी सामयिक। चित्त की वृत्तियों पर हमारी क्रियाओं का प्रभाव न जा सके तो क्रियाओं की निरन्तरता निरर्थक है। अशुभ का तो असर हो और शुभ प्रवेश न कर सके, तो क्रियाओं को करते रहने का क्या अर्थ है? मैं बताना चाहता हूँ कि हमने अभी तक नरक के लिए बहुत श्रम कर लिया अब यह श्रम निरर्थक नहीं, बल्कि मुक्ति के लिए सार्थक बनाना है। जितना श्रम अभी तक कर चुके हो, उससे एक-चौथाई श्रम में मुक्ति का मार्ग, स्वर्ग की व्यवस्था तलाश सकते हो। मुक्ति के लिए ध्यान का राजमार्ग न मिल पाने के कारण वह गलियारों में भटककर रह गया। तुम कब तक स्वर्ग और नरक के नक्शों में भटकते रहोगे। अन्ततः तो मुक्त होना ही है। मनुष्य के सामने अज्ञान, अविद्या और अन्धविश्वास की ऐसी दीवार खड़ी कर दी गई कि वह दूसरी ओर देख ही नहीं पा रहा। अन्धविश्वासों के चलते ऐसा लगता है मानो शान्ति और मुक्ति के मार्ग हमारे हाथ से छूट चुके हैं।
__ मनुष्य जीवित मुक्ति का आनन्द ले सकता है, अपने भीतर निर्लिप्त जीवन को साकार कर सकता है अगर वह मुक्ति मार्ग की ओर प्रस्थान करे मुक्ति का मूल मार्ग : ध्यान
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