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मार्ग कि जिस पर वे स्वयं चले थे। उनसे पहले और उनके बाद भी कई परमपुरुष दिव्य मार्ग पर चल चुके।
आज हम जिस महामार्ग की चर्चा करने जा रहे हैं, कि वह अगर व्यक्ति के धर्म और अध्यात्म में न उतर पाया तो मानकर चलें कि उसके सारे कर्म अर्थहीन हो जाएंगे। जीवन भर तक व्यक्ति क्रिया-काण्ड करता रहे पर उसके जीवन में यह राजमार्ग हाथ न लगा तो समझें कि वह केवल गलियारों में भटकता रह गया। जीवन भर चाहे व्रत, तपस्या, आराधना, पूजा-पाठ, प्रार्थना करते रह जाएँ, पर इस महामार्ग पर प्रवेश न किया तो जानिये कि हमारी सारी यात्रा वहीं की वहीं रह गई, कोल्हू के बैल की तरह, जो एक ही धेरे में सुबह से शाम तक घूमता रहता है और कहीं नहीं पहुँचता। ___ ध्यान जीवन का वह महामार्ग है जो व्यक्ति को संसार-चक्र से मुक्ति दिलाता है। जन्म-जन्मान्तर से पल रही वासना की धारा से मुक्ति दिलाता है
और वह इस महामार्ग के मिलने से ही जन्म-जन्मान्तर तक व्यक्ति कभी मुनि के वेश में आया, कभी संन्यासी बना, कभी कुछ और पकड़ा, कभी बाल लम्बे किये, कभी मुण्डित हुआ और कभी पेड़ पर उल्टा लटका, कभी एक पाँव पर खड़ा हुआ, कभी आग की तपिश के बीच रहा, कभी व्रत-उपवास तपस्या की, लेकिन साधना का गुर हाथ न लगा तो भटकता ही रहा। मेरे देखे कितनी भी धर्म-आराधना कर ली जाए, लेकिन आत्म-ज्ञान और आत्म-ध्यान के अभाव में सारी क्रियाएँ राख के ढेर पर की गई लीपापोती भर हो जाती है। जब तक व्यक्ति मूल को न पकड़ पाये तब तक चाहे कितनी पकड़ हो जाए, पर उसकी सारी पकड़ मूल तक न पहुँच पाने के कारण व्यर्थ हो गई। महामार्ग है ध्यान। धर्म और अध्यात्म के मार्ग के साथ ध्यान को न जोड़ा गया तो वे सारे मार्ग बिना एक का प्रयोग किये शून्य लगाने के समान है। आत्म-बोध, आत्म-ज्ञान, आत्म-दर्शन और आत्म-चिंतन के अभाव में उसकी सारी क्रियाएँ व्यर्थ हैं।
विश्व में विभिन्न प्रकार के धर्म प्रचलित हैं। उनमें नानाविध विभिन्नताएँ भी हैं पर ध्यान वह प्रक्रिया है जिसे सभी धर्मों ने समान रूप से स्वीकार किया है। योगी आनन्दघन कहते हैं 'आतम ज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे। बाहर से कपड़े बदलकर साधु बनने से, मुण्ड मुण्डाकर सन्त बन जाने से और भभूत रमाकर संन्यासी हो जाने से सिद्ध नहीं बना जा मुक्ति का मूल मार्ग : ध्यान
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