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किया है, अपने छोटे भाई से नहीं बोलता। दोनों के बीच कई साल से जमीन-जायदाद का विवाद न्यायालय में चल रहा है। आप आज इन दोनों को मिला दें, तो बहुत अच्छा होगा। ___मैंने पहले छोटे भाई को एक तरफ बुलाकर समझाया तो वह मान गया। उसने कहा कि मैं मामला वापस ले लूँगा। वह हॉल में बैठे बड़े भाई के पास पहुँचा और उसके चरणों में गिर पड़ा। मगर खेद ! बड़े भाई ने अपनी गर्दन पीछे कर ली। ___ बात खत्म हो गई। लोग मासक्षमण के तपस्वी की जय-जयकार करते लौट गये, पर मैं जानता था कि बड़े भाई के मासक्षमण ने परिणाम न पाया। एक मास तक उपवास किया मगर उसके भीतर क्षमा के भाव पैदा नहीं हुए तो उसका उपवास निरर्थक गया। ऐसा मासक्षमण केवल एक समारोह बन कर रह जाता है। जीवन में परिवर्तन नहीं ला पाता। ___ उपवास भीतर के कषाय समाप्त करने का माध्यम है, आत्मा में वास करना है। आप मासक्षमण नहीं कर सकें, कोई बात नहीं, आप ये प्रतिज्ञा करें कि चार दिन तक क्रोध नहीं करेंगे। आप अपनी इस प्रतिज्ञा पर कायम रहे तो समझिये-उपवास हो गया। जहाँ कषाय का उपवास शुरू हो जाता है वहाँ तपस्या अपने आप सध जाती है। हम चर्चा तो महावीर की क्षमा और समता की करते हैं, मगर अपने को नहीं तपा पाते। छोटी-सी बात पर तो हमें गुस्सा आ जाता है। महावीर तो कानों में कीलें ठुकने पर भी शान्त और तटस्थ रह सकते हैं पर हम तो कान में गाली भी सहन नहीं कर सकते, कानों में कील ठुकने की बात तो अलग है। ___ बहुत कम तपस्वी ऐसे देखे हैं जो क्रोध नहीं करते। इसलिए तपस्या जरूर करें, मगर इसके मूल अर्थ को साथ लेकर। हमारे कषाय कितने शांत हो रहे हैं और इन्द्रिय-निग्रह कितना हो रहा है, इस बात का ध्यान रखें। तपस्या पर किए जाने वाले लेन-देन से परहेज़ रखें। तपस्या को भीतर से जोड़ें। तपस्या वहीं तक करें, जहाँ तक शरीर माने। यदि आठ दिन बाद आपको लगे कि अब और तपस्या नहीं होगी, भूखा नहीं रहा जा सकेगा, तो वहीं रुक जाएँ। ऐसा नहीं किया तो तपस्या शरीर के शोषण का कारण बन जाएगी। शास्त्रों में कहा गया है-'अति सर्वत्र वर्जयेत'। तपस्या का मूल तप का ध्येय पहचानें
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