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साधना के जिस चरम स्तर को छुआ था वह साधु-संन्यासियों तक को मिलना दुष्कर होता है। गृहस्थ या संन्यासी होना गौण है वास्तविकता यह है कि हमारे अंतर्मन में क्या है— गृहस्थी में संन्यास या संन्यास में गृहस्थी ? व्यक्ति के अंदर इतना गहन अज्ञान है कि वह सत् को असत् और असत् को सत् मानकर ही चलता रहता है । उसको मतिभ्रम हो जाता है ।
एक बार किसी ग्रामीण व्यक्ति को आईना मिला। उसने देखा तो उसमें जो प्रतिबिम्ब नजर आया उसे अपना पिता जानकर प्रणाम किया । वह आइना उसने तिजोरी में रख दिया और सुबह - शाम निकालकर उसे देख लेता और प्रसन्न हो जाता। उसकी पत्नी नित्य ही यह क्रम देखती । उसने सोचा कि यह रोज-रोज सुबह-शाम तिजोरी खोलता है । आखिर करता क्या है ? यह देखना चाहिए। एक दिन जब पति घर में नहीं था, तो उसने तिजोरी खोली, आईने का टुकड़ा उठाया और उसमें झाँका । स्वयं के प्रतिबिम्ब को किसी अन्य का प्रतिबिम्ब समझकर वह क्रोधित हो उठी कि यह चुड़ैल, इसको ही पति सुबहशाम देखता है और खुश होता है । क्रोध में उस आईने को जमीन पर जोर से फेंक दिया। आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया। शाम को जब पति घर आया तो कहा आज मैंने उस चुड़ैल को खत्म कर दिया। पति ने कहा कि कौन-सी चुड़ैल ? पत्नी ने बताया कि जिसे तुमने तिजोरी में छिपा रखा था । 'वे तो मेरे पिता थे', पति ने कहा । किसी के लिए पिता, किसी के लिए सौतन, मगर सच्चाई कुछ और है।
आज के सूत्र कुछ ऐसे ही हैं। ये म बहु हैं जो कभी-कभी सूत्र ही प्रगट होते हैं । शायद कोई महापुरुष ही यह कहने की हिम्मत कर सके कि कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो संतों से भी अधिक श्रेष्ठ हो सकते हैं। आज के सूत्र बता रहे हैं कि गृहस्थों के क्या दायित्व हैं, उसके क्या कर्त्तव्य हैं और वह किस प्रकार जीवन व्यतीत करे कि वह संसार में रहते हु भी मुक्ति, सिद्धि और निर्वाण प्राप्त कर सके । सूत्र है
संति एगेहिं भिक्खुहिं गारत्था संजमुत्तरा गारत्थेहिं सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा ॥
'साधु संयम में गृहस्थ से श्रेष्ठ होते हैं, लेकिन कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो साधुजनों से अधिक श्रेष्ठ होते हैं।' और ऐसे गृहस्थ सदा प्रणम्य होते
धर्म, आखिर क्या है ?
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