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समझें, गृहस्थ के दायित्व
धर्म और अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होने के लिए दो मुख्य मार्ग हैं। एक मार्ग
वैसे तो सरल है, लेकिन उसे सजगता से जीना मुश्किल होता है और दूसरा मार्ग वह है जिसे ईमानदारी से स्वीकार कर लिया जाए तो वह बहुत सहज हो सकता है। मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है फिर चाहे वह ध्यान-साधना, पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन या भक्ति से अर्जित हो। मुक्ति मनुष्य की आध्यात्मिक कामना है और इसे प्राप्त करने के लिए गृहस्थ और वैराग्य दो मार्ग हैं।
संन्यस्त हो जाना परम सौभाग्य हो सकता है, लेकिन संसार से भागा हुआ व्यक्ति संन्यासी नहीं हो सकता। अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए जो गृहस्थ परम सत्य को प्राप्त कर लेता है वह भी किसी संन्यासी से कम नहीं है। कुछ ज्ञानीजनों ने कहा कि सिद्धि पानी है तो संत बन जाओ। यह ठीक है कि सिद्धि प्राप्त करने में संतत्व सहायक है, लेकिन संत बनना अनिवार्यता नहीं है। गृहस्थ रहकर भी व्यक्ति कुछ ऐसे धर्मों का (गुणों का) अनुसरण कर सकता है जिनके द्वारा मुक्ति प्राप्त हो सके और वहीं यदि मुनि-जीवन में वह विपरीत धर्मों का सेवन (आचरण) कर लेता है, तो विकास की यात्रा पतन की ओर चली जाती है। मुनित्व की धारा में चल रहा
धर्म, आखिर क्या है ?
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