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निश्चल'–शरीर चलता है, लेकिन साधक स्थिर है। शरीर भोजन करता है, साधक नहीं करता। शरीर बोलता है साधु मौन है; शरीर जवान होता है, बूढ़ा होता है, मरता है। साधु का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु। __ प्रत्येक भँवर के बीच जिसने भीतर के मेरु को पकड़ रखा है, वही असली साधक है। चलते हैं राह पर मगर होश रहे 'तुम' कभी नहीं चले। अगर तुम चले तो डगमगा कर गिर जाओगे। दुःख आए तो याद रखना उसकी, जिस पर कभी दुःख नहीं आते। उस पर कुछ नहीं पहुँचता न सुख, न दुःख, न प्रीति, न अप्रीति, न सफलता, न असफलता। सभी द्वंद्व बाहर हैं, भीतर तो मेरु खड़ा है।
कबीर का वचन है-'दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय' संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। शरीर और मन दो पाट हैं, लेकिन इनके बीच मेरु की कील भी है। उसे पकड़ो, उसके सहारे हो जाओ, फिर तुम्हें कोई नहीं पीस पाएगा। वे गेहूँ सदैव अखंड रहते हैं, जो कील का सहारा पकड़ लेते हैं। फिर जन्म हो या मृत्यु, दुःख हो या सुख, तुम प्रत्येक से अछूते रहोगे। तुम मेरु शिखर पर बैठे सब कुछ देखोगे, मगर तुम्हें कुछ भी नहीं छू पाएगा।
महावीर कहते हैं 'चंद्रमा-सा शीतल'। साधक प्रकाशमान तो होता है लेकिन उसका प्रकाश शीतल है। तेजस्विता भले ही सूर्य जैसी हो, लेकिन प्रकृति चंद्रमा जैसी होनी चाहिए। चंद्रमा में उत्तप्तता नहीं है, सिर्फ शीतल प्रकाश है। चंद्रमा का प्रकाश दग्ध नहीं करता, जलाता नहीं है। यह तो प्राणों को तृप्त करता है, घावों को भरता है। ग्रीष्म ऋतु में हम सूरज से तंग आ जाते हैं, लेकिन चंद्रमा का शीतल प्रकाश शांति पहुँचाता है। साधक 'चाँद-सा शीतल हो' जिसके पास जाकर तुम्हें सुकून मिलता हो। तुम उसके पास बैठे तो उसकी तरंगें तुम्हें शांति प्रदान करे। वहाँ कोई उद्वेलन नहीं है, बस, परम शीतलता है। साधु के पास पहुँचकर तुम्हें जीवन को ऊँचाइयाँ देने का ख्याल आने लगेगा। तुम कितने ही पापी क्यों न हो, उसकी शांति, उसकी शीतलता तुम्हें अपनी संभावनाओं को तलाश करने का मार्ग देगी। उसका प्रकाश तुम्हें अनंत आत्मीय आनंद से भर देगा। साधु वह औषधि है जिसके सेवन से सुकून ही मिलता है, जीवन को साधुता ही मिलती है। साधु वह तरुवर है जिसकी छाँह में बैठने मात्र से असीम शांति अनुभव होती है।
___ धर्म, आखिर क्या है ?
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