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कभी सोचा, अगर शेर शिकारी पर हमला कर दे तो हम खेल नहीं कहते और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे तो हम खेल कहते हैं। कभी कोई शेर किसी मनुष्य पर हमला कर दे, उसे घायल कर दे तो हम बौखला जाते हैं। पता है अब तक मनुष्य ने कितने शेरों को मारा है, अनगिनत है। वह भी केवल खेल-क्रीड़ा के नाम पर, अपने झूठे वीरत्व को प्रदर्शित करने के नाम पर । एक बार किसी महाराजा के यहाँ हमारा जाना हुआ। वे पूर्व महाराजा हैं, अभी महलों में ही रहते हैं । उन्होंने अपना महल घूम-घूमकर दिखाया। फिर एक कक्ष में ले गए जहाँ विभिन्न प्रकार के पशुओं के सिर, भूसा भरे हुए सिंह- चीते और भी कितने पशुओं की खाल आदि सजे हुए थे। कक्ष में प्रवेश करते ही वे कहने लगे, 'देखिए हमारे दादा महाराज कितने पराक्रमी थे, वे शिकार के लिए जाते थे और अकेले ही शिकार करते थे । यहाँ की सभी चीजें उन्हीं के द्वारा लाई गई हैं।' मैं सोचने लगा, हिंसा का प्रदर्शन एक अहिंसक के सामने ! क्या इसे हम पराक्रम कहेंगे। आदमी अन्याय करता है। पशुओं के जगत् में कोई अन्याय नहीं है। अगर भूख लगती है तो सिंह हमला करता है, क्योंकि प्रकृति ने उसे भोजन का वही उपाय दिया है।
तुम जब प्रेरणा देते हो तो कहते हो - पशु मत बनो, पर महावीर कभी-कभी अद्भुत प्रयोग कर लेते हैं । वे मिथ्यात्व के दलदल में भी सम्यक्त्व के फूल खिला लेते हैं । भगवान कहते हैं कि निरीहता पाने के लिए पशु जैसे निरीह बनो। जब भी तुम भीतर उतरोगे एक-एक परत खुलती जाएगी, तब तुम आदमी को वहाँ कहीं नहीं पाओगे। हर परत में सिंह है, परिधि से केंद्र तक। इसीलिए तो लोग अपने भीतर नहीं जाते । भीतर जाकर घबराहट होती है कि यह मैं क्या हूँ ? बातें होंगी आत्मा की, आत्म-दर्शन की, लेकिन दर्शन करना कोई नहीं चाहता। फिर भी इनसे गुजरना ही होगा तभी तुम उस तक पहुँच पाओगे जो तुम्हारा असली स्वरूप है, जिसे महावीर कहते हैं, 'पशु-सी निरीहता' ।
भगवान साधक की अगली स्थिति बताते हैं, 'वायु-सी निःसंगता' - हवा बहती रहती है, लेकिन निसंग । फूलों के पास से निकल जाती है, मगर वहाँ रुकती नहीं है कि थोड़ी देर के लिए खुशबू का आनंद लिया जाए। नदियों के पास से निकल जाती है, सुंदर महलों में से गुजर जाती है, कहीं भी ठहरती
धर्म, आखिर क्या है ?
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