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नहीं। वह असंग भाव से बहती रहती है अकेली। महावीर कहते हैं निःसंग भाव साधु का आत्यंतिक लक्षण है। उसमें सबके प्रति मैत्री है, लेकिन वह मित्र किसी को नहीं बनाता।
मैत्री-भाव महावीर का गुण है लेकिन मित्र बनाना नहीं। मैत्री भाव सब जीवों से नित्य रहे, मगर उनके बंध मत जाना। मित्र बनाया कि रुक गए, ठहर गए। प्रेम को कहीं ठहराकर डबरा मत बनाना। हवा की तरह मुक्त रहना। हवा को कौन बाँध पाया ? हवा कहाँ रुकती है ? यात्रा, अनंत यात्रा और अकेले ही करते जाना। यही साधु गुण है।
'सर्य-सा तेजस्वी....' यह साधक का एक विशिष्ट गण है। यह सिर्फ प्रतीक नहीं है। भगवान कहते हैं कि जैसे ही व्यक्ति सरल होता है, भद्र होता है, निरीह होता है, निसंग होता है उसके भीतर ज्योति जलने लगती है। सूर्य-सा तेजस्वी हो जाता है व्यक्ति, रक्ताभ ! एक आभा उसके चारों ओर घिर जाती है। अभी तो मनुष्य पाखंड और कपट से भरा हुआ है। उसके भीतर ज्योति तो विद्यमान है, लेकिन कपट का आवरण पड़ा हुआ है। पाखंड से ज्योति बुझ जाती है। सरलता में धुआँ बिखर जाता है, आवरण अलग हट जाता है और ज्योति जलने लगती है। सच्चे साधक सूर्य जैसे तेजस्वी हो जाते हैं। उनकी आभा, उनकी वाणी तेजस्विनी हो जाती है। उनका प्रभामंडल सूर्य के समान विस्तृत हो जाता है।
'सागर जैसा गंभीर....' साधक की एक अन्य विशेषता है कि वह सागर के समान गंभीर होता है। सागर जैसा विराट। जिसकी कोई सीमा नहीं। जिसकी थाह पानी मुश्किल हो, ऐसा गहन, गंभीर । साधक जब अपनी साधना के शिखर पर पहुँचता है, तब उसे उपलब्ध सत्य एक गंभीरता प्रदान करते हैं। सामान्यजन शायद ही किसी साधक की थाह पा सके। उसकी गुरु-गंभीरता सागर जैसी गहन होती है।
महावीर साधक की नौंवी स्थिति बयान करते हैं-'मेरु-सा निश्चल...' मेरु पर्वत धार्मिक भूगोल का एक प्रतीक है। मेरु वह पर्वत है जो स्थिर है
और जिसके चारों ओर सूर्य, चन्द्र जैसे अनगिनत नक्षत्र घूम रहे हैं। मेरु पर्वत शाश्वत रूप से स्थिर है। साधु वही है जिसने अपने भीतर के मेरु शिखर को पा लिया है, हिमालय की ऊँचाई प्राप्त कर ली है। 'मेरु-सा साधना की सच्ची कसौटी
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