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भगवान कहते हैं कि धर्म का दूसरा सोपान संयम है और तीसरा सोपान तप है, साधना है। __जहाँ व्यक्ति आत्मचेता होकर स्वाध्याय और ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करता है, वहाँ तप-धर्म सध जाता है। ध्यान और स्वाध्याय तप के मार्ग हैं। भगवान ने मुनि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में संयम का पालन किया, दूसरे, अहिंसा का जीवन जिया और तप में स्वयं को अनुरक्त किया। यही मुक्ति का मार्ग है। चंडकौशिक ढुस रहा है तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं और कोई कान में कीलें ठोक रहा है तब भी निश्चलता। सिर्फ मैत्रीभाव, करुणा और . वात्सल्य का भाव।
तप की यात्रा में जहाँ स्वाध्याय, आत्मबोध और ध्यान का समवेत स्वर निकलता है, वहीं तप की वीणा झंकृत होती है। अहिंसा, संयम और तप का पालन ही सच्ची आराधना है, सच्चा धर्म है। जिसका मन सदा धर्म में रत रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं--देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो। अभी तो तुम देवों को मना रहे हो, फिर तुम्हारी आस्था को देखकर देवता भी नमस्कार करेंगे। जिसके अन्तर्माणों में, अंतस् की धड़कनों में, श्वास में धर्म पल-प्रतिपल आविर्भूत हो रहा है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
औ जग हाट बाजार बावरा, तू बण आयौ ब्यौपारी। चतुर करें चौगणा रे मूरख, पूंजी खा जावे सारी।। हिवड़े हाथ धरौ और सोचो काम कांई-कांई करणो। दान, दया, तप, शील, धरम सूं खाली घड़ो है भरणो। अक्सर चूक गयो तो समझ ले जीती बाजी थें हारी।। हिवड़े हाथ धरौ और सोचो काम कांई-कांई करणो। ध्यान धरौ, संयम धारौ लौ भगवंतां रो शरणो। परनिंदा और रागद्वेष ने छोड़ो, बणो सदाचारी॥ हिवड़े हाथ धरौ और सोचो काम कांई-कांई करणो। ज्ञानीजन रे साथ बैठकर भजन प्रभु रो करणो। प्रभु भक्ति सूं मुगति मिलसी, भगती री गती भारी।।
. धर्म, आखिर क्या है ?
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