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तप का ध्येय पहचानें
मनुष्य वैभव से भी पूजा जाता है और त्याग से भी। सत्ता और समृद्धि
'जहाँ जीते-जी सम्मान दिलाते हैं, वहीं त्याग मरणोपरांत भी सम्मान दिलाता आया है। दोनों में एक बड़ा अन्तर यह है कि सत्ताधारी और सम्पन्न व्यक्ति सम्मान तो प्राप्त करता है, लेकिन उसमें स्वार्थ की दुर्गंध होती है। वहीं एक तपस्वी-त्यागी को जो सम्मान मिलता है उसमें निःस्वार्थ श्रद्धा की गहरी सुगंध होती है। सम्मान तो दोनों ही पाते हैं, लेकिन उसकी गुणवत्ता में अन्तर होता है। व्यक्ति जब सत्तासीन है, किसी पद पर है, वह काफी सम्मान पाता है, लेकिन जब वह कुर्सी से उतर जाता है, सारा सम्मान बदल जाता है। कल तक जब पद पर थे, तो लोग उनके आगे-पीछे घूमते थे, चक्कर काटते नजर आ रहे थे, लेकिन आज पद से उतरते ही वे किसी और को ढूँढने लगते हैं।
याद करो जब तुम सत्ता में थे, वैभवशाली थे, लोग तुमसे राय लेने आते थे। समाज में मान देते थे। भले ही तुम्हारे पास बुद्धि-विवेक था या नहीं। कुर्सी से उतरते ही लोगों ने कतराना शुरू कर दिया। देखा यह सम्मान किसका
और क्यों था? यह तुम्हारा सम्मान नहीं था; और न ही तुम्हारे व्यक्तित्व का सम्मान था। यह सम्मान था सत्ता और सम्पत्ति का, उनके स्वार्थों की पूर्ति
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