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में विश्वास करते हैं या भोग में ? अपरिग्रह की बात संग्रहवृत्ति में क्यों बदल गई है ? संदेश हमने सत्य के दिए और आचरण सत्य के विपरीत अपनाया। पूरे विश्व को हम निर्व्यसनी बनने का संदेश देते हैं, लेकिन खुद व्यसन में आगे हैं। संदेश औरों के लिए हैं, व्यसन हमारे लिए। हमने शील का संदेश तो पूरे विश्व को दिया लेकिन विकारों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि बलात्कार और व्यभिचार की कोई-न-कोई घटना अवश्य हो जाती है। __भगवान के जिस सूत्र पर आज हम चर्चा कर रहे हैं वह संयम और तप से ही जुड़ा है। चाहे महावीर के महाव्रत हों या पतंजलि का अष्टांग योग अथवा बुद्ध का मध्यम मार्ग, ये सब संयम और तप से ही तो जुड़े हैं। भगवान कह रहे हैं
जइ तं इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्य घोरस्स।
तो तव संजमं भंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो।। यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर। ___अष्टावक्र की तरह महावीर साधक से पहला प्रश्न यही पूछ रहे हैं कि क्या तु भवसागर से पार जाना चाहता है ? अगर तेरे मन में अभिलाषा है मुक्ति की, भवसागर को पार करने की, तो मेरी बातें तुम्हारे काम की हैं। महावीर सीधे मार्ग नहीं दे रहे हैं। पहले मनुष्य के अन्तर्मन को टटोल रहे हैं। अगर तुम दलदल में ही जाना चाहते हो, या भवसागर में ही डूबे रहना चाहते हो, तो महावीर के वचन तुम्हारे काम के नहीं हैं। महावीर कहते हैं घोर भवसागर ! सामान्य समुद्र को पार करना आदमी के लिए सम्भव है। पर यह भवसागर सात समन्दर से भी विराट और गहरा है, पग-पग पर डूबने का खतरा है। परमपिता परमेश्वर की महती कृपा और हमारा गहरा पुरुषार्थ ही पार लगा सकता है।
भगवान कहते हैं, सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर। क्षण भर भी इसमें प्रमाद मत करना।
आज हमारे पास सब कुछ है अपार धन-वैभव, सुख-साधन। पर तप-संयम से हम वंचित होते जा रहे हैं। हमारे पास महापुरुषों की लम्बी तप का ध्येय पहचानें
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