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पत्नी, पति, मकान, दुकान, धन ? कुछ भी तो नहीं, सब कुछ यहीं अर्जित किया है और जो अर्जित करते हो वह तुम्हारा कैसे हो सकता है ? क्या तुम्हारे शव के साथ धन, दुकान, मकान, पद या परिवार जाने वाले हैं ? मैंने कभी भी मृतक के साथ परिवार को अपनी जान देते हुए नहीं देखा। न ही यह देखा कि धन की तिजोरी शवयात्रा के साथ चल रही हो। सबकी अपनी सीमाएँ हैं। सब यहीं रह जाते हैं। तुम्हारे मकान में दरार आ जाए तो तुम रोते हो, लेकिन तुम्हारी मृत्यु पर कोई मकान नहीं रोता। वैसे भी मृत्यु का शोक कुछ समय का होता है। पत्नी घर के दरवाजे तक, परिवार-समाज श्मशान घाट तक और दो गज कफन का टुकड़ा तब तक तुम्हारा साथ देता है जब तक चिता न जल जाए। ___ तुम्हारे पास चाहे जितनी जमीन हो या बिल्कुल भी न हो, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। एक शव को केवल दो गज जमीन की ही जरूरत होती है। यह सारी माया मनुष्य रचित है और वह इसी में उलझा हुआ है। शंकर ने सत्य ही कहा, 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या'। पर इस मिथ्यात्व का निर्माण मनुष्य ही करता है। लेकिन हम तो मानते हैं 'जगत सत्यं ब्रह्म मिथ्या'। इसका परिणाम यह होता है कि जीवन में शुभ-अशुभ कर्म का आसव निरन्तर जारी रहता है। इसमें वह अपने मूल उद्देश्य को भूल जाता है कि उसे मुक्त होना है और नए कर्मों का बंधन कर लेता है। आपने देखा होगा बच्चे का जन्म होता है तो मुट्ठी बँधी होती है और मृत्यु के समय वह खुली रहती है। यह इस बात का प्रतीक है कि आते समय कुछ अच्छे कर्म लेकर भी आया था, लेकिन जाते समय हाथ पसारे जाने के अलावा उसके जीवन में कुछ भी नहीं है।
सिकन्दर जब मृत्यु-शैय्या पर था। उसके जीवन की अंतिम घड़ी करीब थी। उसका अथाह धन भी उसके जीवन को बचाने में असमर्थ था, तब उसने अपने आस-पास खड़े राजवैद्य, मंत्री और दरबारियों से कहा, 'जब मैं मर जाऊँ और मेरा जनाजा निकाला जाए, तब मेरे दोनों हाथ ताबूत के बाहर रखना, ताकि जमाना देख सके कि जिस सिकन्दर ने जीवन भर धन इकट्ठा किया वह अंतिम समय में खाली हाथ जा रहा है। यह विश्व-विजेता सिकंदर की अंतिम इच्छा थी। इसलिए जीवन का पहला सत्य यही है कि कर्मों का भोक्ता मनुष्य स्वयं है और इन कर्मों से मनुष्य स्वयं ही मुक्ति पाता है। कर्म
धर्म,आखिर क्या है?
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