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मनुष्य को उठाती भी है और गिराती भी है। मनुष्य के पास ज्ञान और काम दो चेतनाएँ होती हैं। कामोपभोगों में ऊर्जा का ह्रास होता है और जब ज्ञान से और ध्यान से गुजरते हैं तो ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करती है। षड्चक्र-भेदन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है जो सहनार से अनन्त में विलीन हो जाती है। यह क्षमता हर मनुष्य में विद्यमान है। जैसे ही चेतना काम से ज्ञान में परिवर्तित हुई उसका ऊर्ध्वारोहण हो जाता है। चेतना के ज्ञान, ध्यान, योग, संन्यास में बदलते ही ऊर्जा ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। ऊर्जा कभी लुप्त नहीं होती। वह या तो चढ़ती है या गिरती है। ऊर्जा तब विनाश का रूप लेती है जब सिकन्दर, हिटलर, नादिरशाह और तैमूरलंग जन्म लेते हैं। यही विकृत ऊर्जा संस्कारित और विकसित हो जाए, रूपान्तरित हो जाए तो राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध और जीसस बन जाती है। ___आत्मा ज्ञान से विमुक्त नहीं है, लेकिन ज्ञान का उपयोग कैसे किया जाए, यह महत्त्वपूर्ण है। मैंने तो यही पाया है कि कोरा ज्ञान मनुष्य को अहंकार देता है, तर्क-वितर्क देता है। इससे उसकी बुद्धि छोटी हो जाती है। ज्ञान जब संदेह और मिथ्यादृष्टि देता है तब वह ज्ञान गिर जाता है। यही ज्ञान ऊर्ध्वारोहित होता है तब व्यक्ति इस ज्ञान से समस्त सृष्टि के लिए, अस्तित्व के लिए कल्याणकारी जीवन जीने की कोशिश करता है। आज के सूत्र हमें यही बताएँगे कि व्यक्ति के लिए ज्ञान-प्राप्ति के लाभ क्या हैं, ज्ञानी होने का सार क्या है। ज्ञान से मनुष्य को नम्रता आनी चाहिए। जीवन में जो राग-द्वेष का विमोचन करता है वह ज्ञान है। हिंसा और परिग्रह से जो मुक्त करे वह ज्ञान है।
एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसई किंचणं।
अहिंसासमयं चेव, एतावंते वियाणिया। ज्ञानी होने का सार क्या है ? सार यही है कि व्यक्ति किसी की भी हिंसा न करे। यह जानना ही पर्याप्त है कि समत्त्व भाव ही अहिंसा है। हिंसा क्यों न करें ? क्योंकि ज्ञान मनुष्य को प्रेम की, करुणा की भाषा सिखाता है। महावीर कहते हैं, जिओ और जीने दो। मनुष्य जानता है कि वह क्या कर रहा है, लेकिन भेदबुद्धि के कारण वह जानबूझकर गलत भी करता है। और ज्ञानी होने पर वह विवेक से कार्य करता है। सब जीवों के प्रति मैत्री, प्रेम और अहिंसा, यही तो ज्ञान की उपलब्धि है। तुम जो पढ़ाई करते हो, स्कूल,
धर्म,आखिर क्या है ?
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