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एक पंक्ति में दें। मेरा प्रश्न है धर्म का सार क्या है?' जीसस बोले, 'औरों से प्रेम, पर उतना ही जितना अपने आप से करते हो।
कबीर कहते हैं किसी को भी कष्ट मत दो। भले ही तुम दानी हो जाओ, पर जो हिंसा की है, वह उस दान से कम नहीं हो सकती।
__'तिल भर मछली खाय के, कोटि गौ दे दान।
काशी करवट ले मरे, तो भी नरक निदान।। कबीर कहते हैं कि तुम चाहे जो कर लो, लेकिन जो हिंसा की है उसके लिए मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है। बबूल का पेड़ बोकर तुम आम नहीं खा सकते।
‘जीव का वध अपना ही वध है'–महावीर की अहिंसा का शास्त्र दूसरे में भी स्वयं को देखने का शास्त्र है। वे कहते हैं कि तुम्हारे सिवाय यहाँ कोई नहीं है इसलिए जो तुम करोगे अपने ही साथ करोगे। तुम क्रोध में दूसरों को जो चोट देते हो, अंततः वह तुम्हीं को लगती है। जीवन का सबसे कठोर सत्य यही है कि जो कुछ हो रहा है उसका जिम्मेदार व्यक्ति स्वयं है। जो तुमने दिया था यह उसी की प्रतिध्वनि है। अगर तुमने इस पर ध्यान नहीं दिया तो फिर वही दोहराए चले जाओगे, जिसके कारण दुःखी हो। तुम्हारा दुःख का जाल फैलता ही जाएगा। अतः जीव पर दया करके तुमने कुछ अहसान नहीं किया, बल्कि स्वयं पर ही दया की है। ___ 'ता सव्व जीव हिंसा परित्तता अत्त कामेहिं'–सभी आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव-हिंसा का परित्याग किया। अगर तुम जीव-हिंसा नहीं करते, तो यह तो तुमने अपने पर दया की है। हिंसा का अर्थ है- दूसरों को दःख देने की आकांक्षा। हिंसा का अर्थ है- दूसरों के दुःख में सुख लेने का भाव। परपीड़न का रस भी हिंसा है। आदमी दो हिस्सों में बँटा है-दूसरों को दुःख दो या अपने को दुःख दो। बस दुःख देना है। महावीर कहते हैं स्वस्थ आदमी सब प्रकार की हिंसा का परित्याग करता है। फूल में कोई रस ले समझ में आता है, लेकिन काँटों में रस लेना यह तो विकृति हो गई। महावीर कहते हैं कि दूसरे को दुःख देते हो तो वह अपने पर लौटता है, भले थोड़ी देर से ही सही
माटी कहे कुम्हार सूं, तू क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा होयेगा, मैं रौंदेंगी तोय॥
धर्म, आखिर क्या है?
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