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भगवान महावीर ने जब प्रव्रज्या ग्रहण की तो लगातार बारह वर्षों तक ध्यान करते रहे। ध्यान भी यही कि नए कर्मों का आसव न हो और पुराने कर्मों की कारा से मुक्ति हो जाए। कर्मों से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है नए कर्म-द्वार को बंद कर दो और जो पानी पहले आ चुका है उसे उलीचकर बाहर निकाल दो। कर्मों का आसव, संवर और निर्जरा ठीक वैसे ही है, जैसे हम नौका विहार कर रहे हों, नाव में छेद हो जाए और भीतर पानी आने लगे। यह है पानी का आम्नव। कर्म अब आने शुरू हुए, अचानक किसी सद्गुरु का संयोग हुआ और जीवन का बोध मिला। गुरु ने बताया कि देख नाव में पानी आ रहा है, तेरी नाव डूब जाएगी। तुमने एक लकड़ी का टुकड़ा उठाया और छेद पर ढक दिया, यह हुआ संवर। जो पानी आ गया है उसे उलीच-उलीचकर बाहर निकालना ही निर्जरा है। इसलिए जब तक मनुष्य जीवन में आने वाले आसव-द्वार को संवर में नहीं ढाल देता और बंधे हुए कर्मों से मुक्त होकर नए कर्म-बंधन को रोक नहीं देता, तब तक मनुष्य की जीवन-यात्रा जन्मों-जन्मों तक यों ही चलती रहेगी। कबीर की भाषा में___ मिनखा जनम दुर्लभ है, देह न बारम्बार।
तरुवर से फल झड़ि पड्या, बहुरि न लागे डार।। - क्या तुमने इस जीवन का उपयोग किया ? तुम्हें तो कोहिनूर भी मिल जाएँ तो पहचान नहीं कर पाओगे; क्योंकि अभी तुम्हें वह दृष्टि ही नहीं मिली है। तुम तो उससे कौए ही उड़ाओगे। तुमने तो वासना और विषयों को भोगने के लिए जीवन को दाँव पर लगा दिया है। इसलिए भगवान कहते हैं, जिन भावों के साथ मनुष्य अपना जीवन जीता है उन्हीं भावों से वह जीवन में शुभ और अशुभ कर्मों का बंधन करता है। अपने जीवन को एक दिशा दो। हर समय शुभ, पवित्र और कल्याणकारी विचारों में रमे रहो। हम किसी के सहयोगी न बन सकें तो कोई बात नहीं, लेकिन किसी के जीवन के बाधक तो न बनें। हम दूसरों की लकीर मिटाने में या छोटी करने में लगे रहते हैं, न अपनी ओर से नई बनाते हैं और न बनी हुई को बड़ी करते हैं। स्वयं को बढ़ाना चाहते हो तो दूसरे को गिराओ मत, खुद आगे बढ़ जाओ, दूसरा खुद-ब-खुद पीछे छूट जाएगा। ध्यान रहे, कर्म तो मनुष्य का अनुगमन करते हैं। कहीं ऐसा न हो कि विपत्ति आने पर अपने अतीत के कर्मों के लिए प्रायश्चित्त करना पड़े कि मैंने ऐसा क्यों किया था। कर्म : बंधन और मुक्ति
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