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अब एक ऐसा धर्म लेना चाहिए, जो समग्र विश्व की मंगल कामना का पाठ पढ़ाता हो। वह धर्म ऐसा हो कि मनुष्य के अंतर्तम में सारे अस्तित्व के प्रति मैत्री का भाव पनपा दे। तब उसे फूल तोड़ने में भी महसूस हो कि अपने शरीर के ही किसी अंग को चोट पहुँचा रहा है। जब ऐसी मैत्री हो जाएगी तब धर्म का पहला लक्षण अहिंसा प्रगट होगा। हमने अभी तक अहिंसा के नकारात्मक पहलू को ही देखा है। अहिंसा का सकारात्मक पक्ष भी है। चींटी न मारना नकारात्मकता है। लेकिन घायल चींटी का उपचार करना सकारात्मक पक्ष है। किसी को दुःख न देना अहिंसा का एक पक्ष है और सुख पहुँचाना अहिंसा का दूसरा पक्ष। आज तक केवल एक ही पक्ष देखा गया। परिणामतः पिछले ढाई हजार वर्षों से हम चींटियों को तो बचाते आए, लेकिन मनुष्य के कल्याण के लिए किसी विशाल योजना का निर्माण न कर सके। महावीर तो वे कल्याणक पुरुष हैं जो याचक को अपना उत्तरीय भी उतार कर देने को तैयार हैं, क्योंकि यह अहिंसा का मैत्री-प्रधान पक्ष है। यह अहिंसा का करुणा पक्ष है, प्रमुदितता-प्रधान पक्ष है। धर्म में अहिंसा के दोनों पक्षों से जीवंतता आती है। __महावीर ने अहिंसा का, बुद्ध ने करुणा का और जीसस ने प्रेम का मार्ग दिया। इन तीनों का संयोजन ही धर्म का सर्वोत्तम रूप है। बिना प्रेम के करुणा अधूरी है और बिना अहिंसा के प्रेम अधूरा। ये सब अन्योन्याश्रित हैं। अहिंसा, करुणा और प्रेम धर्म का सार्वभौम रूप निर्मित करते हैं। लेकिन हमारे यहाँ जोड़-तोड़ की राजनीति चलती रहती है और यह जोड़-तोड़ ही मनुष्य को धर्म के मूल रहस्य तक नहीं पहुँचने देता। ___ धर्म उत्कृष्ट मंगल है, जिसकी दो भुजाएँ हैं-पहली है अहिंसा और दूसरा है संयम। संयम, इंद्रियों का संयम, विचार का संयम। हम तो किसी गुरु के पास जाते हैं, कोई नियम ले लेते हैं, बस, हो गया संयम। लेकिन यह तो बाह्य और सामुदायिक संयम है। एक आंतरिक संयम भी होता है, वह है भीतर की विचारधारा का शुद्धिकरण। यह वैयक्तिक संयम है और यही संयम जीवन का संयम बनता है। संयम क्या है ? संयम है-सं+यम स्वयं पर नियंत्रण। जिस कार में सबकुछ हो, पर ब्रेक न हो तो वह विनाश का कारण बन सकती है, वैसे ही संयम हमारे जीवन में ब्रेक का कार्य करता है कि जब-जब व्यक्ति सीमा-रेखाओं को पार करे, वह स्वयं पर नियंत्रण लगा सके। धर्म, फिर से समझें एक बार
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