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धार्मिक जगे, अधार्मिक सोए
परमात्मा को पाने के दो मार्ग हैं—एक, गंगोत्री से गंगासागर की ओर जाने का, और दूसरा, गंगासागर से गंगोत्री की ओर लौटने का । जो गंगोत्री से गंगासागर की तरफ जा रहा है, वह भी परमात्मा की खोज में है, दूसरा, जो गंगासागर से गंगोत्री की ओर बढ़ रहा है वह भी परमात्मा की ओर ही जा रहा है। परमात्मा को पाने का पहला मार्ग है समर्पण का और दूसरा है संकल्प का । समर्पण के मार्ग में व्यक्ति परमात्मा के चरणों में स्वयं को, स्वयं की अहमियत को समर्पित कर देता है । उसका भाव होता है कि जो कुछ है परमात्मा का है, मेरा कुछ भी नहीं । मीरां का समर्पण देखा है आपने ? जो मीरां का था, वह सब कुछ कृष्ण का । समर्पण के बाद व्यक्ति शंका नहीं करता। हमारी श्रद्धा में भी शंका है, अधूरापन है । तुम मंदिर जा रहे हो और रास्ते में पत्थर से टकरा कर चोट लग गई तो क्या कहोगे ? दर्शन करने जा रहा था और भगवान ने हड्डी तोड़ दी ।
तुम भगवान से कामनाएँ करते हो, मनौतियाँ माँगते हो, अगर पूर्ण हो जाएँ तो ठीक और अगर पूर्ण न हों तो तुम भगवान को मानना ही छोड़ देते हो । यह तुम्हारा उसके प्रति समर्पण नहीं है । केवल एक विश्वास है । इसमें श्रद्धा कम स्वार्थ ज्यादा है । लेकिन जहाँ श्रद्धा और समर्पण का संग हो जाए,
धर्म, आखिर क्या है ?
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