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औ जग हाट बाजार बावला....। यह संसार तो किसी हाट-बाजार की तरह है, जहाँ हर प्राणी किसी व्यापारी का रूप धरकर आता है। अपनी चतुराई का उपयोग करता है। कोई तो अपने धन को और चौगुना कर लेता है, तो कोई मूर्ख जो पूंजी साथ लेकर आता है, उसे भी खा-पीकर चौपट कर जाता है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम मूर्खता के मापदंड अपनाते हैं या बुद्धिमानी का उपयोग करते हैं। किसी को न सताना, आत्मनियंत्रण रखना और अनुकूल-प्रतिकूल हर परिस्थिति में समत्वशील रहना-बस यही है धर्म का सार, धर्म का स्वरूप, धर्म का जीवन । धर्म हमारे जीवन की रोशनी बने, प्रेरणा बने, सुख-शांतिपूर्वक जीवन का आधार बने। बस, यही है धर्म का मर्म, धर्म का बीज।
धर्म, फिर से समझें एक बार
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