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मैं बार-बार कहता हूँ कि धर्म मात्र परम्परा नहीं है। जैसे युगीन संदर्भो में व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन आते हैं वैसे ही युगीन संदर्भो से व्यक्ति के धर्म में भी बदलाव आना चाहिए और अगर परिवर्तन नहीं होता तो शास्त्र
और कुछ कहेंगे और तुम्हारा जीवन कुछ और; हमारे ग्रन्थ कुछ और संदेश देंगे और जीवन-शैली कुछ और चलेगी। धर्म संदेश देगा हजारों वर्ष पहले का
और तुम जीवन जिओगे इक्कीसवीं शताब्दी का। दोनों में रात और दिन का फर्क पड़ जाएगा।
धर्म के बारे में गलियाँ नहीं निकालनी चाहिए। धर्म को राजमार्ग बनाएँ, ताकि वह सिद्धान्त बन जाए। अगर देख रहे हो कि पाँच हजार वर्ष पूर्व वेदों ने धर्म का कोई सिद्धान्त स्थापित किया या उपनिषदों ने कोई जीवन-शैली बनाई या आगम और पिटकों ने जीवन का मार्ग बताया, आज की स्थिति में देख रहे हो कि उन मागों पर चलना असंभव है तो गलियाँ मत निकालो, बल्कि जीवन के राजमार्ग का निर्माण करो ताकि ईमानदार जीवन व्यतीत कर सको। किसी गलत कार्य को करने से अधिक घातक यह है कि वह कार्य छिपकर किया जाए। सारे परिवर्तन ईमानदारी से किए जाने चाहिए। यदि मुनि को रात में प्रकाश की आवश्यकता है तो दरवाजा बन्द कर प्रकाश करने से अच्छा है दरवाजा खोलकर आवश्यकता पूर्ण की जाए। अपवाद मार्ग का सहारा लेकर भी व्यक्ति जब परम्परा से बँध जाता है तो वह चट्टानी धर्म बन जाता है, सरित प्रवाहमय धर्म नहीं।
धर्म को कभी सरोवर का रूप न दो, धर्म को नदिया बनाओ। उसे रुंधा हुआ मत रहने दो। विराट होने दो, सागर होने दो और तुम भी सागर के पथिक बनो, विराट के पथिक। अब, एक व्यक्ति चींटी को बचाने में धर्म मानता है, दूसरा बकरे की बलि देने को धर्म समझता है। क्या तुम सार्वजनिक धर्म को एक कर पाओगे। व्यक्ति की अपनी मानसिकता के आधार पर जीवन जीने की शैली और जीवन के धर्म का निर्माण होता है। जो शिव को मानता है वह शैव कहलाता है, जो जिन को मानता है वह जैन कहलाता है, जो ईसा को मानता है वह ईसाई कहलाता है, जो मुहम्मद को मानता है वह मुसलमान कहलाता है। ये सब तो कहने के धर्म हैं, लेकिन दूसरा धर्म जीने का धर्म है। कहने का और बताने का धर्म सदा सामुदायिक होता है, लेकिन जीने का
धर्म, फिर से समझें एक बार
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