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प्रवचन-सभा में मौजूद हजारों शिष्यों में महाकाश्यप भी एक था। महाकाश्यप सदा गंभीर रहता था, न किसी से अधिक बात करता और न हँसता-मुस्कुराता। वही महाकाश्यप भगवान को पुष्प निहारते हुए देखकर थोड़ी देर बाद जोर-जोर से हँसने लगा। वह आज बहुत प्रसन्न, प्रमुदित और आनन्दित था। तब भगवान अपने स्थान से उठे और आगे बढ़कर वह कमल-पुष्प महाकाश्यप को सौंप दिया। शिष्यों ने कहा, 'भगवान आज का प्रवचन ?' प्रभु ने कहा, 'आज का प्रवचन पूर्ण हो गया।'
जहाँ साधक मौन में ही सत्य की अनुभूति करने की कला सीख लेता है, वहाँ सत्य की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। सत्य की चिरंतन अभिव्यक्ति यह है कि जब सत्य को बोलने की कोशिश की जाती है, तो वह अपने मूल स्वरूप को आगे-पीछे, कम-ज्यादा कर बैठता है।
मनुष्य के जीवन की पहली आवश्यकता सत्य है, उसका जीवन सत्यमय हो, उसका अस्तित्व सत्य से जुड़ा हो। अहिंसा सत्य है, अगर यह सत्य नहीं है तो उसका अस्तित्व भी नहीं है। अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, वीतरागता सत्य हैं; क्योंकि सत् ही आत्मा का स्वभाव है। जब हम आत्मा के स्वरूप की बात करते हैं तो यही कहते हैं-सत्-चित्-आनन्द (सच्चिदानंद)। आत्मा का मौलिक स्वभाव-आनन्द दशा। कौन-सा आनंद ? परमात्मा की आनंद दशा। परमात्मा क्या है वह सत् है। जीवन के रहस्य के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त हुआ-सच्चिदानंद। आनंद मनुष्य का स्वभाव है। आनंद से ही सत्य मिलता है।
जीवन, जगत और अध्यात्म का प्रथम और अंतिम सोपान सत्य ही है। महावीर ने जगत छोड़ा, क्यों ? सत्य को पाने के लिए; जीवन का अनुसंधान किया सत्य को पाने के लिए और उन्हें उपलब्ध हुआ, केवल सत्य ! बुद्ध ने साधना क्यों की ? सत्य का अनुसंधान करने के लिए अर्थात् साधना का प्रथम चरण भी सत्य है और अंतिम उपलब्धि भी सत्य है। जिसके जीवन में सत्य का बसेरा नहीं, उसके हाथ से जीवन, जगत और अध्यात्म सब छिटक जाते हैं। धर्म का शाश्वत प्रकाश यही है कि व्यक्ति ध्यान रखे–'सत्यमेव जयते।
सद्गुरु का क्या अर्थ है ? जो सत् का स्वामी है वही सद्गुरु। जिसके जीवन में मिथ्यात्व का किंचित् भी अवशेष है, वह सद्गुरु नहीं हो सकता।
सत्य : एक समय धर्म
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