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उस छाया को रेसाकित कर लिया और उसके मध्मवर्ती तमाम घाम के प्र पुरी को तोड-तोड कर वैल के मुख में डाल दिया । घास के साथ श्रीपधि के चले जाने पर वैल पुन पुरुप बन गया।
इस प्रकार प्राचार्य ने प्रास्यान का उपसहार करते हा कहा- "गजन,' । जिस प्रकार नाना प्रकार की घासो के मिल जाने में प्रोपधि की पहिचान नहीं हो सकी, उसी प्रकार इस युग मे कई धर्मों के प्रचलन से सत्य धर्म निरोभून हो रहा है । परन्तु समस्त धर्मों के सेवन से उम दिव्य प्रोपधि की प्राप्ति के ममान पुष्प को कभी न कभी शुद्ध धर्म की प्राप्ति हो ही जाती है । जीव-दया, सत्य-अचीय प्रहाचयं पीर अपरिग्रह के सेवन से, बिना किसी विरोध के, ममम्त धर्मों का पागधन हो जाता है।"
इस कथा के अाधार पर प्राचार्य हेमचन्द्र का एक सर्वथा नवीन धार्मिक दृष्टिकोण सामने आता है । जैन धर्म के अनुयायी होते हुए भी उन्हे विमी धर्म में विद्वेष नही था । प्राणिमात्र को वे धर्म की सीमा से ऊपर मानते थे। मानवहित सम्बन्धी सभी बातें उन्हे मान्य हैं, भले उनका उल्लेख जैन धर्म में न हो । इम प्रकार सर्वधर्म समन्वय की भावना ने प्राचार्य हेमचन्द्र को और भी उच्चामन पर बैठा दिया था । धर्म के प्रति उनका यह उदारतापूर्ण दृष्टिकोण कई स्थलो पर स्पष्ट हुना है। सोमनाथ पट्टन में उनके द्वारा की गयी शिव की प्रार्थना उनके इसी दृष्टिकोण का परिणाम कही जा सकती है। उन्होने अपने "याश्रय काव्य"2 में भी कहा है कि "जिन" का दर्शन अहत, शिव, विष्णु और ब्रह्मा सभी में किया जा सकता है। प्राचार्य हेमचन्द्र के ही समान उनके पूर्व के कुछ जैनाचार्यों का भी धर्म के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण है । चालुक्यवशी भीम प्रथम के समकालीन कवि ज्ञानदेव "शिव ही जिन हैं" ऐसा कहकर अपना उदार दृष्टिकोण प्रकट करते हैं । उनके अनुसार शिव और जैन मे भेद करना मिथ्यामति मात्र है। इसी प्रकार सोमेश्वर नाम के जैन विद्वान् भी ऐसी ही दृष्टि रखते हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र का यह विलक्षण धार्मिक दृष्टिकोण उनकी रचनायो मे भी देखा जा सकता है । सस्कृत द्वयाश्रय काव्य का समस्त वातावरण सनातनी है तथा प्राकृत द्वयाश्रय काव्य जैन धर्म का गुणगान करता है । इसी प्रकार अन्य कृतियो मे भी उनके उदार धार्मिक दृष्टिकोण को परिलक्षित किया जा सकता है । प्राचाय का सम्पूर्ण जीवनकाल भी धार्मिक समन्वय ही
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प्रभावक चरित 70
या का, प्रथम अध्याय, श्लोक 79 सुरथोत्सव के रचयिता तथा भवी वस्तुपाल के मिन्न ।